पानी में अठखेलियां करते पक्षी

Friday, December 2, 2011

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पक्षी जब पंख पसार कर उड़ते हैं, तो उन्हें देखना बड़ा ही सुखद अनुभव होता है, लेकिन जब कल-कल करती लहरों के साथ रंग-बिरंगे पक्षी अठखेलियां करें तो फिर बात ही अलग होती है। ऐसा नजारा आप तालाब और झील के किनारे पर बैठकर देख सकते हैं। मध्य प्रदेश में पाए जाने वाले ऐसे ही कुछ पक्षियों की बनावट और अनुकूलन के बारे में आपको बता रहे हैं।

अधिकांश जलीय पक्षी ठंड के प्रवासी होते हैं। अत: उनकी उपस्थिति ठंड के आगमन की सूचना देती है। जलीय पक्षी जलीय क्षेत्रों के कीट पतंगे, मछलियों और घोंघे जैसे जलीय जन्तुओं को खाकर जैविक नियंत्रण करते हैं। जलीय क्षेत्रों के स्वस्थ वातावरण का अनुमान पक्षियों को देखकर लगाया जा सकता है। पक्षी जलीय पौधों की वृद्धि पर नियंत्रण रख जलीय तन्त्र की आॅक्सीजन उपलब्धता को बढ़ाते हैं। यह जलीय पौधों की वृद्धि के लिए हानिकारक जलीय जन्तुओं जैसे केंकड़े, घोंघे आदि का भक्षण करते हैं या खाने योग्य मछलियों के परपक्षी जन्तुओं को नष्ट करते हैं। यह अपनी नाइट्रोजन और फास्फोरस के जल में उत्सर्जन से जल मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं।

जानकारी के अनुसार संसार में लगभग 12 हजार प्रजातियों में से लगभग 1200 प्रजाति भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जती हैं। मध्य प्रदेश की लगभग 250 प्रजातियों में 100 प्रकार की पक्षी जाति जली य हैं। इन्हें भोजन, आवास, प्रवास यानि माइग्रेशन और शारीरिक संरचना के आधार पर कई भागों में बांटा जा सकता है।

जलीय पक्षियों के प्रकार-
बत्तख/हंस-

यह दो प्रकार के होते हैं; डुबकी लगाने वाले और जल की सतह पर रहने वाले। डुबकी लगाने वालों में नील सिर बत्तख, लाल सिर बत्तख और सींक पर को शामिल कर सकते हैं। वहीं सतह पर रहने वालों में गिर्री बत्तख, गुगुरल बत्तख, हंस, छोटी सिल्ही, पीलासर बत्तख, तिदारि बत्तख आते हैं।
जलमुर्गियां-
इस कैटेगरी में ऐसे जलीय पक्षी आते हैं जो बत्तख जैसे दिखते हैं, लेकिन बत्तख होते नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर टिकड़ी, पनडुब्बी और जसाना आदि।
वेडर-
इसमें लंबे पैरों वाले पक्षियों को रखा गया है। पक्षी पानी में मौजूद भोजन को ढंूढ़ते हैं। जैसे- सारस, बलाक, बुल्जा, हंसावर आदि।
जलकाक-
इस समूह में मछलीखोर पक्षियों का समूह जैसे पनकौआ, बम्बे आदि हैं।
उभयचर-इस प्रकार के पक्षी समूह में पानी में नहीं पाए जाने वाले, लेकिन पानी के समीप रहने वाले पक्षियों के समूह को शामिल किया गया है। इस प्रकार के पक्षी प्राय: जलीय भोजन पर निर्भर रहते हैं। इसमें किलकिला, कुररी, बाटन, धोबिन, टिटहरी और धोमरा आदि आते हैं।

जलीय पक्षियों की खास बातें-- जलीय पक्षियों की गर्दन और चोंच लंबी होती है। ब्लाक, अंजन, बगुले अपनी लंबी गर्दन की सहायता से जलीय जंतुओं का शिकार करते हैं।
-ऐसे पक्षियों के लंबे पैर होते हैं और हड्डियां मजबूत होती हैं। लंबे पैरों की मदद से आसानी से पानी में अपना भोजन ढूंढ़ लेते हैं। इसका उदाहरण सारस और बगुले हैं।
- जलीय पक्षियों की अंगुलियां मजबूत होती हैं जिससे वे जलीय पौधों की पत्तियों पर चल सकते हैं। जसाना, जलमुर्गी इसका उदाहरण हैं।
- पंखों पर मोम की परत चढ़ी होती है जो उन्हें जलरोधक बनाती हैं। बत्तख, पनडुब्बी आदि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
- जलीय पक्षियों के पैर झिल्लीयुक्त होते हैं, जो उन्हें तैरेने में मदद करते हैं।

खास तरह की चोंच-
पक्षियों की आदत के अनुसार चोंच की बनावट होती है।
आगे से चपटी- बत्तख की चोंच ऐसी ही होती हैं। ऐसी बत्तख कुतरकर खाने में मदद करती है।
चम्मच जैसी- ऐसी चोंच उड़ते हुए शिकार पकड़ने में मदद होती है। पघीरा, धीमरा और कुररी इसका उदाहरण है।

लंबी सीधी या मुड़ी हुई- ऐसी चोंच कीचड़ में कीड़े या जलीय जन्तु ढूंढ़ने में मदद करती है। जैसे- बाटन, गुडेरा आदि।
भालेनुमा-
ऐसी चोंच मछली पकड़ने में मदद करती है। किलकिला और बगुला आदि की चोंच ऐसीस ही होती है।
छलनीयुक्त चोंच- ऐसी चोंच से पक्षी कीचड़ से कीड़े ढूंढकर खा लेते हैं।
थैलीनुमा- ऐसी चोंच की बनावट भोजन की थैली में भोजन एकतित्रत करने में मदद करती है। हवासिल की चोंच ऐसी ही होती है।
दरांतीनुमा चोंच-
ऐसी चोंच से मछली आसानी से पकड़ी जा सकती है। पनकौवा की चोंच ऐसी ही होती है।
लंबी और आगे से चपटी चोंच-
ऐसी चोंच पानी छानकर जलीय जन्तुओं को ढूंढ़ने में मदद करती है। चमचा यानि स्पून बिल इसका उदाहरण है।



मप्र के प्रमुख जलीय पक्षी-अंधा बगुला (पांड हेरॉन)
सारस (शरारी टिटहरी)
छोटा किलकिला (कॉमन किंगफिशर)
गार्जेनी (चेता बत्तख)
मलंग बगुला (ग्रेट इर्जेट)
स्लेटी अंजन (ग्रे हेरॉन)
नकटा (कॉम्ब डक)
सफेद छाती किलकिला (ह्वाइट ब्रेस्टेड किंगफिशर)
टिकड़ी (कॉट)
जल कुररी (रिवर टर्न)
सफेद छाती जलमुर्गी (ह्वाइट ब्रेस्टेड वॉटरहेन)
सर्खाब (रूबी शेलडक)
बार हेडेड गूज (सरपटी स्वान)
छोटी मुर्गाबी (कॉमन टील)
कोरिल्ला किलकिला (पाइड किंगफिशर)
नील सिर बत्तख (मार्लाड)
सफेद बुज्जा (ह्वाइट इब्स)
गुगराल बत्तख (स्पॉट बाइल्ड डक)
हाजी लगलग (वॉली नेक स्टॉर्क)
छोटा पनकौवा (लिटिल कॉर्मोरेंट)
बड़ा पनकौवा (ग्रेट कॉर्मोरेंट)
बेखुर बत्तख (गडवाल)
जांघिल (पेंटेड स्टॉर्क)
लाल सिर बत्तख (रेड क्रिस्टेड पॉचार्ड)
घोंघिल (ओपन बिल स्टॉर्क)
जलपीपी (ब्रांज्ड विंग्ड जेकाना)
गिर्री बत्तख (कॉटन टील)
चमचा (स्पून बिल)
कॉमन स्नाईप (सामान्य चहा)
कोआरी बुज्जा (ग्लोसी इब्सि)
गजपांव (ब्लैक विंग टिल्ट)

रोचक पहलू- जलीय पक्षी बत्तख, जलमुर्गी, हंस की सबसे खास बात यह होती है कि ये पौधों पर तैरते हुए घोंसले बनाते हैं, जबकि बगुले, बुज्जा, बलाक, हंसावर, चमचा आदि प्रजातियां पेड़ों पर घोंसला बनाती हैं। टिटहरी, कुररी, किलकिला और सारस आदि जमीन पर अंडे देते हैं।

No Tobacoo

Tuesday, November 29, 2011

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समझें और समझाएं

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1 दिसंबर - एड्स दिवस पर विशेष

गांधी मेडिकल कॉलेज के माइक्रोबॉयोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड डॉ. दीपक दुबे का कहना है कि 1986 में दिल्ली में एड्स को लेकर सबसे पहली मीटिंग हुई थी। तब कोई ऐसी स्थिति को लेकर आश्वस्त ही नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है। मीटिंग में मौजूद एक अधिकारी ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर गर्व करते हुए यहां तक कहा था कि हमारे देश के लोगों का चरित्र बहुत अच्छा है। एड्स तो यहां के लोगों को हो ही नहीं सकता है, लेकिन जो स्थिति आज है उससे सभी वाकिफ हैं।

मप्र की स्थितिमप्र का इंदौर एचआईवी संक्रमण के मामले में पहले नंबर पर है। इसके बाद सतना, जबलपुर और भोपाल का नंबर आता है। छोटे शहरों की बात करें तो खंडवा, बुरहानपुर, मंदसौर और नीमच आते हैं। ग्वालियर शहर में प्रदेश के अन्य शहरों के मुकाबले एचआईवी संक्रमितों की संख्या कम है। ट्रक चालक और सेक्स वर्कर्स की भूमिका एचआईवी फैलाने में सबसे ज्यादा है। नेशनल हाइवे के किनारे वाले शहरों में एचआईवी फैलने की संभावना अन्य शहरों के मुकाबले अधिक रहती है। मप्र में यह स्थिति 10 प्रतिशत पर ही स्थिर है।

नो कंडोम , नो सेक्स
कलकत्ता के सेक्स वर्कर्स के लिए ‘नो कंडोम नो सेक्स’ का कॉन्सेप्ट लागू किया गया था। इसके चलते अन्य बड़े शहरों के मुकाबले कलकत्ता में एचआईवी संक्रमण का खतरा कम हो गया था। इसी कॉन्सेप्ट को अन्य जगह भी लागू किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। यदि स्वस्थ्य जीवन जीना है तो ऐहतियात तो बरतने ही होंगे।

सकारात्मक पहलू
मंदसौर जिला बाछड़ा जाति बाहुल्य जिला है। एचआईवी एड्स को फैलाने में इस जाति की प्रमुख भूमिका रही है, लेकिन जागरुकता कार्यक्रमों और जनचेतना का प्रभाव इस जाति पर पड़ा है। यही वजह है कि इस जाति के कई परिवारों ने लड़कियों से पारंपरिक काम करवाना भी बंद कर दिया। फिलहाल जाति के कुछ लोगों ने ही इस तरह का सकारात्मक कदम उठाया है, लेकिन यह सराहनीय है।

एड्स की वैक्सीन और उपचार
वर्तमान समय में यदि एड्स के कारगर टीके की बात करें, तो वह मौजूद नहीं है। एड्स की वैक्सीन क्यों नहीं बन पा रही है, इसके पीछे वायरस की बदलती दशाएं हैं। नए अनुसंधानों के जरिए कुछ कारगर दवाएं बनाई गई हैं, जो काफी हद तक स्थिति को काबू करती हैं। प्रेग्नेंट महिलाएं जिन्हें एड्स होता है, यदि समय पर उनकी पहचान हो जाती है तो उन्हें नेवीरेपी मेडिसिन दी जाती है। इसके जरिए मां से बच्चे को एड्स होने की संभावना 30 से घटकर 5 प्रतिशत हो जाती है। देश ही नहीं प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर भी पीपीटीसी (प्रिवेंटिंग मदर टू चाइल्ड ट्रांसमिशन) सेंटर खोले जा रहे हैं। इसके जरिए यदि गर्भावस्था या इससे पहले ही माता की काउंसलिंग हो जाती है और ऐसी महिलाओं की पहचान हो जाती है तो मां से बच्चे को होने वाले एचआईवी एड्स के खतरे को कम किया जा सकता है।

बचाव
यदि कोई व्यक्ति एचआईवी पॉजीटिव है, तो उसे घबराने की जरूरत नहीं है; क्योंकि स्वस्थ जीवन शैली के जरिए वह लंबे समय तक जीवित भी रह सकता है। अपने साथी से वफादरी बरते। अपने आप को समाज से अलग नहीं समझे। एक आम व्यक्ति की तरह की अपना जीवन जिए। एचआईवी पॉजीटिव भी समाज का ही हिस्सा हैं।

सात से तीस लाख का सफर
डॉ. दुबे बताते है कि देश में 1987 में सबसे पहले चेन्नई के सेक्स वर्कर के बीच एड्स की पुष्टि हुई थी। इससे प्रभावितों की संख्या महज सात थी जो आज बढ़कर करीब 32 लाख तक पहुंच गई है। इसके पीछे मुख्य कारण असुरक्षित यौन संबंध ही है।

प्रेग्नेंट महिलाएं और एड्स
एचआईवी प्रेग्नेंट महिलाओं से उनके बच्चों में पहुंच जाता है, लेकिन ऐसा केवल एक तिहाई मामलों में ही होता है। हर प्रेग्नेंट महिला को अपना एचआईवी टेस्ट जरूर कराना चाहिए। ऐसी महिलाओं को डॉक्टर से लगातार सलाह करनी चाहिए।  जन्म लेने के बाद बच्चे का एचआईवी टेस्ट किया जा सकता है, लेकिन इससे यह पता नहीं लग सकता कि बच्चे को इन्फेक्शन है या नहीं, क्योंकि यह टेस्ट एचआईवी एंटीबॉडी टेस्ट होता है और एचआईवी पॉजीटिव मां से पैदा होने वाले हर बच्चे के शरीर में जन्म के वक्त एचआईवी एंटीबॉडी होते ही हैं। इनमें से जो बच्चे एचआईवी पॉजीटिव नहीं होते, वे डेढ़ साल की उम्र तक एचआईवी एंटीबॉडी छोड़ देते हैं। ऐसे में 18 महीने के बाद ही बच्चे का टेस्ट कराया जाए तो अच्छा है। वैसे, पीसीआर टेस्ट से तीन महीने के बच्चे के बारे में भी पता लग जाता है कि वह एचआईवी पॉजीटिव है या नहीं।

क्या है एड्स
ए ड्स का पूरा नाम है एक्वायर्ड इम्यूनो डिफिशिएंसी सिंड्रोम। न्यूयॉर्क में 1981 में इसके बारे में पहली बार पता चला, जब कुछ समलिंगी अपना इलाज कराने डॉक्टर के पास गए। इलाज के बाद भी रोग ज्यों का त्यों रहा और रोगी बच नहीं पाए, तो डॉक्टरों ने परीक्षण कर देखा कि इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो चुकी थी। फिर इसके ऊपर शोध हुए, तब तक यह कई देशों में जबरदस्त रूप से फैल चुकी थी और इसे नाम दिया गया ‘एक्वायर्ड इम्यूनो डिफिशिएंसी सिंड्रोम’ यानि एड्स। विश्व में ढाई करोड़ लोग अब तक इस बीमारी से मर चुके हैं और करोड़ों अभी इसके प्रभाव में हैं। अफ्रीका पहले नम्बर पर है, जहां एड्स रोगी सबसे ज्यादा हैं। भारत दूसरे स्थान पर है। भारत में अभी 1.25 लाख मरीज हैं, प्रतिदिन इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। भारत में पहला एड्स मरीज 1986 में मद्रास में पाया गया।
एचआईवी   
 एचआईवी (ह्यूमन इम्यूनोडिफिशिएंसी वायरस) एक ऐसा वायरस है, जिसकी वजह से एड्स होता है। यह वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान में फैलता है। जिस इंसान में इस वायरस की मौजूदगी होती है, उसे हम एचआईवी पॉजीटिव कहते हैं। आमतौर पर लोग एचआईवी पॉजीटिव होने का मतलब ही एड्स समझने लगते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। एचआईवी किसी मनुष्य को 8 स्टेज से होते हुए एड्स तक पहुंचाता है। यह सिर्फ 4 तरीके से होता है। अलग-अलग विपरीत लिंगों से संभोग, उनके खून को चढ़ाना, खून चढ़ाने वाले इंजेक्शन सिरिंज का उपयोग करना और गर्भावस्था और प्रसव के पूर्व के दौरान संभोग मुख्य है, मरीज के साथ खाने-पीने या किसी प्रकार के बाहरी संबंध से यह बीमारी नहीं फैलती लेकिन जेल और पागलखाने में होमोसेक्सुअलटी से यह फैल सकती है।

काउंसलिंग और केयर
एचआईवी टेस्ट और काउंसलिंग के लिए सरकार ने पूरे देश में 5 हजार इंटिग्रेटेड काउंसलिंग एंड टेस्टिंग सेंटर (आईसीटीसी) बनाए हैं। इन सेंटरों पर व्यक्ति की काउंसलिंग और उसके बाद बाजू से खून लेकर जांच की जाती है। यह जांच फ्री होती है और रिपोर्ट आधे घंटे में मिल जाती है। आमतौर पर सभी जिला अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों और कुछ कम्युनिटी हेल्थ सेंटरों पर यह सुविधा उपलब्ध है। यहां पूरी जांच के दौरान व्यक्ति की आइडेंटिटी गुप्त रखी जाती है। पहले रैपिड या स्पॉट टेस्ट होता है, लेकिन इस टेस्ट में कई मामलों में गलत रिपोर्ट भी पाई गई है। इसलिए स्पॉट टेस्ट में पॉजीटिव आने के बाद व्यक्ति का एलाइजा टेस्ट किया जाता है। एलाइजा टेस्ट में कन्फर्म होने के बाद व्यक्ति को एचआईवी पॉजीटिव होने की रिपोर्ट दे दी जाती है।

चलो घूमकर आएं

Thursday, November 10, 2011

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वैसे तो घूमना हर किसी को अच्छा लगता है, लेकिन घूमने के लिए बच्चे अधिक उत्साहित होते हैं। प्रदेशभर में घूमने के लिए एक से एक टूरिस्ट स्पॉट हैं, लेकिन नए टूरिस्ट स्पॉट की बात करें तो प्रदेश की राजधानी में अभी हाल ही में ‘सैर सपाटा’ टूरिस्ट स्पॉट मप्र पर्यटन विकास निगम की ओर से डवलप किया गया है। यहां पर बच्चों के मनोरंजन को ध्यान में रखते हुए कई स्पॉट डवलप किए गए हैं।

सैर सपाटा एरिया 24 एकड़ में फैला खूबसूरत मनोरंजन केन्द्र है। इसे डवलप करने में लगभग 11.5 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। यहां पर बच्चों से लेकर हर एक वर्ग को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग जोन डवलप किए गए हैं। इसके बारे में प्रोजेक्ट के आर्किटेक्ट मिलिंद जुमड़े बताते हैं कि यह प्रोजेक्ट उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है। पूरी मेहनत और लगन के साथ उन्होंने लोगों की रुचि को ध्यान में रखते हुए पूरे प्रोजेक्ट को डिजाइन किया है।

आकर्षण केन्द्र सस्पेंसन ब्रिज-
देश का पहला केबल सस्पेंसन यहां तैयार किया गया है। 500 फिट लंबे और 12 फिट चौड़े ब्रिज को बनाने में लगभग 3.5 करोड़ रुपए खर्च हुए। रात में ब्रिज पर चलने का अलग ही आनंद है। इसमें लगी एलईडी लाइट अलग ही अनुभव देती है।

सैर सपाटा जंक्शन-
बच्चों के लिए सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र यहां चलने वाली वाटिक एक्सपे्रस है। पारंपरिक डिजाइन में तैयार की गई इस रेलगाड़ी में बैठने का अलग ही आनंद है। ट्रेल लगभग 1 किलोमीटर के ट्रेक पर घूमती हुई सैर सपाटा जंक्शन पर पहुंचती है। इस एक किमी के ट्रेक पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर भोजपुर, सांची, मांडू, खजुराहो, पचमढ़ी नाम से स्टेशन भी बनाए गए हैं। ट्रेन में 40 लोगों के बैठने की व्यवस्था है। जंक्शन से रवाना होने से पहले टीसी वाकायदे यात्रियों की टिकट भी चेक करता है।

फूड जोन-
चार हजार स्वायर फिट एरिया में अलग-अलग जगह पर फूड जोन और फूड कियोस्क बनाए गए हैं, जहां पर लोग अपने पसंद की डिश, स्नैक्स, पेय पदार्थ ले सकते हैं। वेज और नॉनवेज दोनों तरह फूड यहां उपलब्ध है।

चिल्ड्रन पार्क-
बच्चों की रुचि और पसंद को ध्यान में रखते हुए चिल्ड्रन पार्क भी डवलप किया गया है। यहां पर उनके लिए झूला, पार्क, फिसलपट्टी सहित अन्य खेलकूद की गतिविधियों को शामिल किया गया है।

नेचर ट्रेल-चार एकड़ जंगल में नेचर ट्रेल को बनाया गया है। इस हरे-भरे जंगल में मोर, गौरैया सहित अन्य पक्षी और तितलियां देखने को मिलती हैं। प्राकृतिक हवा और कुदरती जीव-जन्तुओं को देखने और महसूस करने का मौका भी सैलानियों को मिलता है।

 म्यूजिकल फाउंटेन-
म्यूजिक की धुनों पर फुहारे बिखरते हुए फाउंटेन को देखने का भी अलग मजा है। इस फाउंटेन की सबसे खास बात यह है कि यह किसी भी इंस्टूमेंटल सीटी या म्यूजिक पर चलता है। इसका एक शो 25 मिनट तक चल सकता है।

व्यू प्वांइट-
चार अलग-अलग ग्लास व्यू प्वांइट बनाए गए हैं। जहां पर खड़े होकर आप प्राकृतिक सुंदरता का लुत्फ उठा सकते हैं। यहां पर खड़े होकर आप स्वयं को प्रकृति के बेहद करीब पाएंगे।

ग्लास व्यू-
पूर्णत: ग्लास से बने ग्लास व्यू रेस्टोरेंट में आपको अलग अनुभव होगा। यहां पर बैठकर आपको ऐसा लगेगा कि आप पानी के अंदर बैठे हुए हैं। लेमिनेटेड कांच के फ्लोर पर बैठकर आप तालाब की लहरों और जीव-जन्तुओं को देख सकते हैं। इसके नीचे बहने वाला झरना और एलईडी लाइट के खास अनुभव देगा।

पैडल बोट-
बोट क्लब की तर्ज पर यहां पर भी पैडल बोट चलाई जा रही हैं। भदभदा के प्रेमपुरा घाट में डवलप यह जोन बच्चों और युवाओं के लिए रोमांच का केन्द्र है। लहरों के साथ और प्रकृति के गोद में अठखेलियां करने का अपना अलग ही महत्व है।

शुरू होगा ट्रेडीशनल जोन-
मप्र की कला संस्कृति को ध्यान में रखते हुए आने वाले समय में ट्रेडीशनल जोन भी शुरू किया जाएगा। इसमें मप्र के अलग-अलग हिस्सों में मिलने वाला पारंपरिक भोजन का लुत्फ उठाने का मौका भी लोगों को मिलेगा। इतना ही नहीं यहां पर प्रदेश के पारंपरिक परिधानों में सजे व नृत्य करते लोगों को देखने का भी मौका लोगों को मिलेगा। इसके साथ ही प्रदेश के कलाकारों द्वारा निर्मित किए गए आर्ट वर्क भी पर्यटक देख सकेंगे।


 'सैर सपाटा डवलप करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को नया पिकनिक स्पॉट उपलब्ध कराना था। यही वजह है कि यहां पर अलग और वर्ल्ड क्लास स्पॉट डवलप किए गए हैं।'
पंकज राग,  एमडी, मप्र पर्यटन विकास निगम


शहर के अन्य आकर्षण-
बोट क्लब
वन विहार
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय
राज्य संग्रहालय
रेनवो ट्रीट
केरवा

बड़ी रोचक है पटाखों की कथा

Saturday, November 5, 2011

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 दीवाली का त्योहार हिन्दुओं का सबसे बड़ा और प्रमुख त्योहार है। दीवाली का त्योहार हो और पटाखे न छोड़े, आतिशबाजी न करें, ऐसा शायद संभव ही नहीं लेकिन बढ़ते पदूषण और पर्यावरणीय दशाओं को ध्यान में रखते हुए हमें ऐसा करना होगा। बच्चों आप लोगों के मन यह प्रश्न भी उठता होगा कि आतिशबाजी की शुरुआत कैसे हुई। चलिए आपको पटाखों के बारे में ऐसी ही रोचक जानकारी देते हैं।
दरअसल पटाखों का आविष्कार एक दुर्घटना के कारण चीन में हुआ। मसालेदार खाना बनाते समय एक रसोइए ने गलती से साल्टपीटर (पोटैशियम नाईट्रेट) आग पर डाल दिया था। इससे उठने वाली लपटें रंगीन हो गईं, जिस से लोगों की उत्सुकता बढ़ी। फिर रसोइए के प्रधान ने साल्टपीटर के साथ कोयले व सल्फर का मिश्रण आग के हवाले कर दिया, जिससे काफी तेज आवाज के साथ रंगीन लपटें उठी। बस, यहीं से आतिशबाजी यानी पटाखों की शुरुआत हुई। वैसे पटाखों का पहला प्रमाण वर्ष 1040 में मिलता है, जब चीनियों ने इन तीन चीजों के साथ कुछ और रसायन मिलाते हुए कागज में लपेट कर ‘फायर पिल’ बनाई थी।
आतिशबाजी को रंगीन बनाने के लिए उसमें स्ट्रोंशियम और बोरियम नामक धातुओं के लवणों का इस्तेमाल किया जाता है, इन्हें पोटैशियम क्लोरेट के साथ मिलाते हैं। स्ट्रोंशियम नाइट्रेट लाल रंग पैदा करता है जबकि स्ट्रोंशियम काबोर्नेट पीला रंग उत्पन्न करता है। बेरियम के लवणों से हरा रंग तथा स्ट्रोंशियम सल्फेट से हल्का आसमानी रंग पैदा होता है। इस तरह आतिशबाजी के दौरान अनेक रंग पैदा हो जाते हैं जो उसे खूबसूरत बनाते हैं।

यूरोप में सबसे पहल चलन में आए पटाखे-
खैर, पटाखे बनाने की कला भारत सहित अन्य पूर्वी देशों को भी आती थी। यूरोप में पटाखों का चलन सबसे पहले वर्ष 158 में हुआ था। यहां सबसे पहले पटाखों का उत्पादन इटली ने किया था। जर्मनी के लोग युद्ध के मैदानों में इन बमों का इस्तेमाल करते थे। चीन के लोग किसी समारोह आदि में इन बमों का इस्तेमाल करते थे। इंग्लैंड में भी इनका उपयोग समारोहों में किया जाता था। महाराजा चार्ल्स (पंचम) अपनी हरेक विजय का जश्न आतिशबाजी करके मनाते थे। इस तरह से 14 वीं शताब्दी के शुरू होते ही लगभग सभी देशों ने बम बनाने का काम शुरू कर दिया था।

अमरीका में शुरुआत-
अमरीका में इसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी में मिलीट्री ने की थी। इसकी प्रतिक्रिया में पटाखें बनाने की कई कंपनियां खुली और सैकड़ों लोगों को रोजगार मिला। बाद में पश्चिमी देशों ने हाथ से फेंके जाने वाले बम बनाए। बंदूके और तोप भी इसी कारण बनी थी।

कुछ रोचक बातें-
- 1892 में अमेरिका में कोलंबस के आगमन की चौथी शताब्दी पर ब्रकलिन ब्रिज पर जमकर आतिशबाजी की गई थी। इसे करीब 10 लाख लोगों ने देखा था।
- पटाखों से होने वाले खतरों को देखते हुए अमेरिका में 19वीं शताब्दी के अंत में ‘सोसायटी फॉर सप्रेशन आफ अननेससरी नाइस’ का गठन किया था।
- कुछ सालों पहले जापान में एक ऐसी रंगीन आतिशबाजी का प्रदर्शन किया गया था जो 3 हजार फुट की ऊंचाई पर जाकर 2 हजार फुट के व्यास में बिखर गई थी।
- सबसे लंबा पटाखा छोड़ने का प्रदर्शन 20 फरवरी, 1988 को यूनाईटेट ग्लाएशियन यूथ मूवमेंट द्वारा किया गया था। यह प्रदर्शन 9 घंटे 27 मिनट तक जारी रहा और इसमें 3338777 पटाखों तथा 666 किलोग्राम बारूद का इस्तेमाल किया था।
- भारत में पटाखें बनाने का मुख्य केन्द्र शिवाकाशी है जो कि एक छोटा शहर है, लेकिन इसके लिए संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।

फुहारों को देख लौट आता है बचपन

Tuesday, August 2, 2011

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डॉ. सुमन चौरे

  रक्षाबंधन पर विशेष-

सावन की रिमझिम फुहारों के साथ-साथ थिरकती बूंदें ले आती हैं बहुत सारी यादों की बौछारें। कोई बौछार मन को नहला जाती है बचपन की सलौनी स्मृतियों से, तो कोई फुहार भिगो जाती है भाई-बहनों के सरस-पावन त्योहार रक्षा-बन्धन की यादों से।
एक लम्बा अरसा हो गया, बचपन हमसे बहुत पीछे छूट गया। फिर भी सावन आते ही बूंदों में बचपन लौट आता है। कभी सुनाई देती है, गांव की गलियों में बैलों के गले की घण्टियां, गाड़ियों के चकों की घुर-घुर, नई नवेली बहन बेटियों के पैरों की पायल की छुन-छुन, तो नीम पर बंधे हिण्डोलों से उठते सखियों के सुमधुर कण्ठों की स्वर लहरियां..।

रिमझिम वरसऽ छे मेहऽ
सखी री सरावणऽ आयो जीऽ
हिण्डोला थिगी रह्या आकासऽ
वीरों म्हारों लेणऽ आयो जीऽ।

आसमान को छूते हिण्डोले, उतने ही ऊंचे अरमान बहनों के। बाबुल के घर जाना है। रक्षा बंधन पर भाई लेने आएंगे। सब कुछ भाव हिण्डोलों के साथ स्वरों में लहराने लगते हैं। बार-बार बूंदों में प्रतिबिम्बित होता है मेरे गांव का हाट। रंग-बिरंगी राखियां, डोरे, चूड़ी बिल्लौर से सजे हाट। बहनें बड़े उत्साह से बाजार में घूम-घूम कर सुन्दर राखी खरीदती हैं, तो कहीं से बहुत सारे चकरी भौरों के बीच से भाई के लिए सुन्दर रंगीन लट्टू खरीदती हैं। बहन-भतीजों के लिए हार-साकळा, फुंदना, पांचा, लम्बे हरे-लाल रंग की फुंदने की चोटियां, तो गिल्ली, कंचा आदि आदि, सब कुछ कितना लुभावना सलौना सौदा होता था हाट का। खुशी-खुशी आंचल में भरकर उत्साहित कदमों से घर लौटती थीं सभी बहन-बेटियां।
राखी का त्योहार हमारे घर कई रूपों और रंगों में आता था। भोर होते ही श्रावणी के पूजन की तैयारी। बहुत से पंडित-पुजारी और हमारे परिवार के सभी सदस्य कावेरी तट पर यज्ञोपवीत बदलते थे। फिर कच्चे सूत की रंगीन राखी देवताओं को बांधी जाती। पंडित-पुजारी हमारे आजा को राखी बांधते थे। फिर घर के नौकर-चाकर हमारे आजा, दादा, बाबूजी आदि सभी को राखी बांधते थे।
दोपहर बाद घर की बहन-बेटियां सबको राखी बांधती थीं। हम भी जल्दी से भाइयों को राखी बांध देते थे। राखी के पहले तक बड़ा संयम रखना पड़ता था। क्योंकि आज के दिन भाई-बहनों के लड़ने पर बड़ी पाबन्दी रहती थी। बड़ा मुश्किल दिन होता यह। भाई बहन लड़ें नहीं, तो प्रेम कैसा। मझला भाई राखी के अवसर का बड़ा फायदा उठाता था। बहुत सारी फरमाइशें करता था। उसकी स्लेट पत्थर के कोयले से घिसकर काली चमकाना, उसकी कलम (चॉक मिट्टी की) की बारीक नोक करना, ताकि अक्षर सुडौल निकलें। हमारे बस्ते में रखी जो वस्तु हो उसे वही चाहिए। विरोध करने पर कहता था, ‘‘देख, अगर तूने कहना नहीं सुना, तो मेरे हाथ में जो तेरी राखी बंधी है ना, उसको दांत से तोड़कर फेंक दूंगा। तुझे ससुराल भी लेने नहीं आऊंगा।’’ हां, एक बात अवश्य थी; अगर इस प्रकार के झगड़े की भनक आजी मांय को लग जाती, तो वे लड़कों को ही डांटती थीं, हम लड़कियों को नहीं। मांय के सामने कोई भी भाई किसी बहन से ऊंची आवाज में नहीं बोल सकता था। हम बहुत सारे भाई-बहन थे। किस भाई की कौन सी बहन, सब तय हो जाता था, जिससे झगड़ते समय अपनी-अपनी बहनें, अपने-अपने भाइयों का साथ दे सकें।
राखी के दिन हमारे घर का माहौल सांझ होते-होते मेले जैसा हो जाता था। आजा मालगुजार थे। अत: गांव के हर बहन बेटी हमारे घर राखी बांधने आती थीं। घर के चारों दरवाजों से टोलियां ही टोलियां दिखाई पड़ती थीं। कोई गाड़ी दरवाजे से, कोई कचेरी दरवाजे से, कोई अगवाड़े से तो, कोई पिछवाड़े के दरवाजे से आते थे। हाथ की आरती में टिमटिमाता दीपक और थाली भर रंग-बिरंगी राखियां। बहनों के दस-बीस गज के घाघरों से आंगन बहुरंगी बगिया जैसे लगने लगता था। पैरों के झन-झन झांझर। राखी बांधकर भाइयों की आरती उतारते, बहनों के हाथ के कंगना खनकते थे। यह ध्वनि वातावरण को रसमय बना देती थी।
आंगन में कतारबद्घ बैठते थे आजा, दादा, बाबूजी, दाजी, भाई आदि लोग। साथ में बैठतीं, आजी मांय, बड़ी बाई ताकि हर बहन को उचित नेग मिले। आजी मांय दो दिन पहले से ही सेठ दाजी की दुकान से बहुत सारे ब्लाउस-पीस कटवा लेती थीं और ढाई गज की साड़ी बुलवा लेती थीं। सब बहन-बेटियों को कपड़ा, तो किसी को अठन्नी तो किसी को नगद पैसा भी देती थीं। पैसे की बात से मन रोमांचित हो उठता था। तब हमारे पास नगदी पैसे कहां होते थे। बस लड़कियों को राखी पर ही, आना, आधाना, धेला, तो पाई मिल जाती थी। मुझे तो सेठ दाजी के घर से मेरी पसन्द का फ्रॉक का कपड़ा और दुअन्नी मिलती थी। सबको राखी बांधे, तब ब-मुश्किल, दस-बारह आने हो पाते थे। उन्हें बड़े सम्हालकर रखना पड़ता था। भाई लोग आए दिन कहते, ‘‘तेरे पास पैसे हैं तो उधार दे दे। दशहरे पर दशहरा जीतने के बाद जो पैसे मिलेंगे उससे तेरी उधारी चुका देंगे और छेदवाला धेला ब्याज में दे देंगे।’’ हम बहनें अपनी सम्पत्ति आजी मांय के हवाले कर देते थे। क्योंकि तब घरों में पेटी अलमारी में ताले-चाबी लगाना अच्छा नहीं माना जाता था। आजी मांय हम सब बहनों के पैसे अलग-अलग रंग की   चिंदियों में बांध कर रख देती थीं। फिर भी आजी मांय की नजर चुराकर हम अपनी चिंदी की पोटली देख लेते थे कि कहीं पैसे कम तो नहीं हुए।
रक्षा-बंधन पर्व का आखरी दिन होता जन्माष्टमी। जो लोग किसी कारण से पूनम को राखी नहीं बांध पाते थे, वे इस दिन राखी बांधते थे। इस दिन भी गांव की बहुत सी बहनें आती थीं राखी बांधने। भील आवार की जितनी भी बहनें आती थीं। वे अपने हाथ से कच्चे सूत को रंगकर राखी व फुंदना बनाती थीं और बड़े मनोयोग से राखी बांधती थीं। उन्हें नहीं मालूम कि राखी या रक्षा बंधन का क्या अर्थ है। उन्हें तो बस इस बात की खुशी होती थी कि मालगुजार दाजी के बेटे उनसे राखी बंधवाते हैं, वे ससुराल में बड़ी ऊंची नाक रखकर यह बात कहती थीं। मुझे सावन की झरती बूंदों सा सुखद लगता था यह त्योहार, जहां बिना छुआछूत के राखी का पर्व मनाया जाता था। आज भी मैं अपने आंगन की वह रौनक, वह छवि, आंखों में बसाए हुए हूं और सावन की फुहार से उस प्रेम बेल को सींच लेती हूं, सरस सलोना सावन आया।

मां का दूध, बढ़ाए बुद्धि

Monday, August 1, 2011

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  विश्व स्तनपान सप्ताह - 1-7 अगस्त



जन्म के एक घंटे के भीतर शिशु को कराया गया स्तनपान अमृत का काम करता है। जानकारी और जागरुकता के अभाव में अधिकतर महिलाएं जन्म के तुरंत बाद स्तनपान नहीं कराती हैं। शहद और घुट्टी सरीखी गलत चीजों को बच्चे को चटाया जाता है, जो बच्चे के लिए हानिकारक साबित होती हैं। मां और बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि जन्म के तुरंत बाद स्तनपान कराया जाए। इसकी पहल आज से ही करनी होगी।

जानकारी के मुताबिक भारत में जन्म के तुरंत बाद स्तनपान कराने की बात कहें तो यह आंकड़ा सिर्फ 23 प्रतिशत ही है। विशेषज्ञ बताते हैं कि यदि जन्म के बाद मां बच्चे को अपना गाढ़ा-पीला दूध पिलाती है, तो पांच वर्ष के अंदर होने वाली शिशु मृत्यदर में 22 फीसदी की कमी लाई जा सकती है। सामाजिक रूढ़ियों को दरकिनार   करते हुए वैज्ञानिक आधारों को  मानते हुए इसकी पहल आज से ही करनी होगी। तब यह आंकड़ा 23 से 100 फीसदी की दर को छू   सकेगा। इसके लिए जरूरी है कि मां स्वयं जागरुक हो और आगे आकर जन्म के बाद अपने शिशु को स्तनपान कराए।

क्यों जरूरी है जन्म के बाद का स्तनपान

जन्म के तुरंत बाद एक घंटे के अंदर स्तनपान कराने के लिए इसलिए भी जोर दिया जाता है, क्योंकि इसके कई फायदे हैं। वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह बात साबित भी हुई है। जन्म के तुरंत बाद यदि माता बच्चे को स्तनपान कराती है, तो आंवल गर्भाशय से जल्दी अलग हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि बच्चे द्वारा स्तन चूसने से गर्भाशय के चूसने की गति तेज हो जाती है। साथ ही प्रसव के पश्चात तीव्र रक्तस्त्राव की संभावना भी कम हो जाती है।

क्या है कोलेस्ट्रम
जन्म के समय के तीन-चार दिन तक गाढ़े-पीले रंग का दूध बनता है, जिसे कोलेस्ट्रम कहते हैं। यह नवजात शिशु के लिए बहुत ही फायदेमंद होता है। इसमें मौजूद एंटीबॉडीज और पोषक तत्व बच्चे में रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करते हैं जो बच्चे के लिए जन्मभर काम आता है। यही वजह है कि इसे पहला टीका भी कहा जाता है। जन्म के तुरंत बाद मां को अपना दूध शिशु को अवश्य देना चाहिए। यह पचने में भी हल्का होता है, साथ ही बच्चे की भी पाचनशक्ति बढ़ती है।

स्तनपान के फायदे-
- जन्म के एक घंटे के अंदर बच्चे को यदि मां अपना दूध पिलाती है, वह बच्चे के जन्मभर काम आता है। यही वजह है कि इसे पहला टीका भी कहा जाता है।
- बच्चे का बौद्धिक विकास सही ढंग से होता है। पूरक आहार के साथ मां बच्चे को दो साल की उम्र तक स्तनपान करा सकती है। 
- स्तनपान कराने वाली महिलाओं में स्तन कैंसर होने की संभावना कम हो जाती है।
- यह गर्भावस्था के दौरान बढ़े वजन को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- स्तनपान माहवारी की वापसी में देरी करने में मदद करता है। इस तरह यह बच्चों के बीच में अंतर रखने का प्राकृतिक उपाय है। बच्चा भी हष्ट-पुष्ट बनता है।


बॉटल को कहें न..
चाहे आप सफर क्यों न कर रही हों, लेकिन बच्चे को बॉटल से दूध पिलाने की आदत बिल्कुल भी न डालें। बॉटल से दूध पिलाने पर बच्चे को असहजता तो होती ही है, साथ ही इन्फेक्शन का भी खतरा हो सकता है। सफर के दौरान भी आप सुरक्षित और आरामदायक स्थान पर बैठकर स्तनपान करा सकती हैं। जहां तक संभव हो तो छ: महीने तक घर से कम ही बाहर जाएं। छ: महीने के बाद यदि बच्चे को लेकर बाहर जाना पड़ता है, तो पूरक आहार से काम चलाएं। बच्चे को छ: महीने के बाद ऊपर का दूध चम्मच की सहायता से पिला सकती हैं।


यूं कराएं स्तनपान-
स्तनपान  कराने के दौरान यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि बच्चे और मां की पोजीशन ठीक रहे। खडेÞ होकर, उकडूं बैठकर, बच्चे को बैठी हुई स्थिति में लेकर बिल्कुल भी स्तनपान न कराएं। माता ठीक से बैठकर अपनी गोदी में बच्चे को लेकर स्तनपान कराए। यह भी बेहद जरूरी है कि दूध पीते समय बच्चे की नाक खुली रहे, जिससे वह ठीक ढंग से सांस ले सके। दूध पिलाते समय माता बच्चे के सिर पर प्यारभरा हाथ फेरती रहे। इसका फायदा यह होता है कि बच्चे के मस्तिष्क से ऐसे हारमोन्स निकलते हैं, जो उसे दिमागी रूप से तेज बनाते हैं। इतना ही नहीं उससे लगातार बतचीत भी करती रहें। एकाग्रचित होकर स्तनपान कराएं। ऐसा करने से मां को भी खूब दूध निकलता है। माता दिन और रात को मिलाकर कम से कम बच्चे को 8-10 बार दूध अवश्य पिलाए। रात में भी बच्चे की जरूरत के अनुसार दूध पिलाती रहें। छ: महीने तक मां बच्चे को सिर्फ अपना ही दूध पिलाए। इसके बाद पूरक आहार देना शुरू करें।

कामकाजी महिलाएं ये करें-
जो महिलाएं कामकाजी हैं। वे भी मैटरनिटी लीव लेकर छ: महीने तक घर पर रहकर बच्चे को समय दें और छ: महीने तक लगातार स्तनपान कराएं। यदि छ: महीने के बाद आफिस ज्वाइन करना हो तो भी अपना दूध बच्चे को पिला सकती हैं। आफिस जाने से पहले महिलाएं एक साफ बर्तन में दूध निकालकर ढककर रख दें। चाहे तो रेफ्रिजिरेटर में भी रख सकती हैं। बच्चे को भूख लगने पर घर का कोई भी सदस्य चम्मच की सहायता से बच्चे को दूध पिला सकता है, लेकिन साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। घर के सदस्य इस बात का पूरा ध्यान रखें कि बोतल से बिल्कुल भी बच्चे को दूध न पिलाएं। सफर में भी यदि बच्चे को दूध पिलाना है, तो चम्मच से दूध   पिलाने की आदत डाल सकते हैं।


गलतफहमी न पालें-

कुछ महिलाएं अपनी कद-काठी को ध्यान में रखकर यह निर्णय लेती हैं कि अधिक समय तक स्तनपान कराने से उनका फिगर गड़बड़ा जाएगा। यह बिल्कुल गलत है। यदि मां अपने बच्चे को स्तनपान कराती है, तो उसका शरीर भी स्वस्थ्य और अच्छा रहता है। शारीरिक बनावट में कोई परिवर्तन नहीं आता है।


न निकले दूध तो...

जन्म के बाद मां को ठीक से दूध नहीं उतरता है तो वह बच्चे को बार-बार स्तनों से लगाए। उसका शरीर अपने शरीर से चिपकाकर रखे। उसे प्यार करे। भावात्मक लगाव लगाए। बार-बार  प्रक्रिया दोहराने के बाद भी दूध नहीं निकलता है तो फिर वैज्ञानिक पद्धति से दूध को निकाला जा सकता है।


लैक्टेशन / दुग्धपान-
यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो सभी मादा स्तनपायी प्राणियों में होती है और मनुष्यों में इसे आम तौर पर स्तनपान या नर्सिंग कहा जाता है। आॅक्सीटोजन हारमोन्स के स्त्रावण से दूग्ध स्त्रावण की प्रक्रिया जन्म लेती है। गैलक्टोपोइएसिस दूध उत्पादन को बनाये रखने को कहते हैं।

कम वजन के शिशु के लिए फायदे-

- शिशु को शक्कर की कमी एवं तापमान में कमी से बचाता है।
- मृत्यु की संभावना को कम करता है। 
-  शिशु की सर्वोत्तम वृद्धि एवं विकास में सहायक होता है।
- संक्रमणों से बचाता है।
- स्तनपान से डायरिया होने के खतरे कम होते हैं।
-  एलर्जी से बचाता है।

कृत्रिम दूध और मां के दूध में अंतर -
मां के दूध में अनेक गुणधर्म हैं, जिनका अनुकरण करना नामुमकिन है। कृत्रिम दूध में मां के दूध के जैसी सामग्री कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फैट और विटामिन इत्यादि डाल दिए जाते हैं, किंतु इनकी मात्रा नियत रहती है। मां के दूध में इनकी मात्रा बदलती रहती है। कभी मां का दूध गाढ़ा रहता है तो कभी पतला, कभी दूध कम होता है तो कभी अधिक, जन्म के तुरंत बाद और जन्म के कुछ हफ्तों बाद या महीनों बाद बदला रहता है। इससे दूध में उपस्थित सामग्री की मात्रा बदलती रहती है, और यह प्रकृति का बनाया गया नियम है कि मां के दूध में बच्चे की उम्र के साथ बदलाव होते रहते हैं। भौतिक गुणवत्ता के अलावा, मां के दूध में अनेक जैविक गुण होते हैं, जो कि कृत्रिम दूध में नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए मां के दूध देने से मां-बच्चे के बीच लगाव, मां से बच्चे के रोग से बचने के लिए प्रतिरक्षा मिलना और अन्य।


फैक्ट फाइल-
- मप्र में शिशु मृत्युदर, बाल मृत्युदर एवं मातृ मत्युदर का अनुपात राष्ट्रीय अनुपात से अधिक है। एनएफएचएस-3 के आंकड़ों पर गौर करें तो स्थिति काफी चिंताजनक है। राज्य में तीन वर्ष से कम उम्र के 60 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं। 5 वर्ष से कम आयु के 35 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, वहीं 12.6 प्रतिशत बच्चे अति कुपोषित हैं। मप्र में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 10 लाख के करीब है।
- अन्तरराष्ट्रीय हेल्थ  जर्नल लेंसेट के 2003 के आंकड़ों के मुताबिक शिशु के जन्म के 6 महीने तक स्तनपान और उसके बाद साथ-साथ संपूरक आहार देने से शिशु मृत्युदर में 19 फीसदी की कमी लाई जा   सकती है।
- मप्र में सिर्फ 15 फीसदी बच्चे ही ऐसे होते हैं, जिन्हें जन्म के एक घंटे के अंदर मां का दूध पिलाया जाता है।
-  मप्र में संस्थागत प्रसव के आंकड़ों पर गौर करें तो यह पहले से चार गुना बढ़ा है। लोगों में जागरुकता का स्तर यदि यूं ही बढ़ता गया तो शिशु मृत्युदर में आने वाले समय में कमी लाई जा सकेगी।



 जन्म के बाद बच्चे को दिया गया मां का गाढ़ा पीला दूध बच्चे के लिए जन्मभर काम आता है। उसमें रोगों से लड़ने की क्षमता विकसित होती है और उसका बौद्धिक विकास भी सही ढंग से होता है। स्वयं मां और घर के सदस्यों को इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा कि जन्म के एक घंटे के भीतर मां अपना दूध बच्चे को पिलाए। इतना ही नहीं छ: महीने तक सिर्फ बच्चे को मां का ही दूध मिलना चाहिए। इसके अलावा उसे कुछ भी नहीं दिया जाए।
डॉ. शीला भुम्बल, शिशु रोग विशेषज्ञ

प्रदेश में अभी भी जन्म के तुरंत बाद स्तनपान कराने को लेकर जो आकड़ें सामने आ रहे हैं उतने अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं। सरकार को इस तरफ और प्रयास करने होंगे। साथ ही लोगों को भी जागरुक करना होगा। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता इस काम में सबसे अहम भूमिका निभा सकती हैं।
तान्या गोल्ड्नर, राज्य प्रमुख यूनिसेफ

कला और संस्कृति के रंग

Thursday, July 28, 2011

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स्थान विशेष की माटी में रची-बसी कला बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। नृत्य, संगीत, नाटक, नृत्य नाटिका सहित ऐसी कई विधाएं हैं, जो व्यक्ति को कलात्मक अभिव्यक्ति से ओत-प्रोत करती हैं। भारत की संस्कृति और लोक कला को प्रदर्शित करने में ये कलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। नृत्य उनमें से एक है। ऐसा ही एक समागम पिछले दिनों 22-23 जून तक भोपाल के रवींद्र भवन में आयोजित दो दिवसीय रंगकृति उत्सव में देखने को मिला। राजगढ़ घराने की ख्यातिनाम कथक नृत्यांगन वी अनुराधा सिंह के नृत्य में आध्यात्मिकता के साथ-साथ सूफी परंपरा की झलक भी देखने को मिली। वहीं मशहूर रंगकर्मी और निर्देशक अलखनंदन के निर्देशन में मंचित किया गया नाटक ‘चारपाई’ भी भारतीय मध्यम वर्गीय जीवन की जीवंत शैली का जीता-जागता उदाहरण ही कहा जा सकता है। आजादी से पहले और आजादी के बाद के इतने वर्षों बाद भी व्यक्ति की आकाक्षाएं, जीवन से संघर्ष और पैसे की किल्लत जस की तस बनी हुई है। दो जून की रोटी के लिए व्यक्ति द्वारा की गई मशक्कत को इसमें बड़े ही प्रभावपूर्ण तरीके से दर्शाया गया। इस दौरान कला संस्कृति के क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाले मनीषियों को सम्मानित भी किया गया। रंग निर्देशक अलखनंदन, कथक नृत्यांगना वी अनुराधा सिंह, कला निर्देशक जयंत देशमुख, रंगकर्मी राकेश सेठी, बॉलीवुड कलाकार इश्तियाक खान, मॉडल अभिनीत गुप्ता, लेखक अमिताभ बुधौलिया, अंकिता मिश्रा, भरतनाट्यम नृत्यांगना प्राची मुजूमदार और लोक नृत्यांगना तनया बलवटे को रंगकृति पत्रिका के प्रधान संपादक रवि चौधरी की ओर से रंगकृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

राहुल गांधी की पदयात्रा

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डॉ. सुशील तिवारी
पदयात्रा आदिकाल से अद्यतन प्रासंगिक है। पदयात्रा का मूल दर्शन है जनता के बीच जाकर सीधे साक्षात्कार करना, उनके दुख-दर्द को दूर करना। भारतीय संस्कृति और परम्परा की शुरुआत भगवान श्री राम के युग से आरंभ हुई थी। उन्होंने वनगमन के दौरान भील, कोल, किरात, आदिवासी समाज के लोगों के बीच जाकर उनके दु:ख-दर्द को देखा, सुना और समाधान भी किया। असुरों का संहार कर एक स्वस्थ्य समाज की आधारशिला रखी थी। पूज्य महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे ने भी पदयात्रा करके समूचे देश की धरती पर भ्रमण किया था।
महात्मा गांधी के आदर्शों का अनुसरण करते हुए राहुल गांधी के मन में पदयात्रा का संकल्प जन्मा और उन्होंने उन सिद्धांतों के अनुरूप कांग्रेस पार्टी में मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष का आव्हान किया है।
राहुल गांधी के मन मैं पदयात्रा का संकल्प या भारतीय राजनीति में अचानक अभ्युदय नहीं हुआ है, बल्कि उनके इस तरह के आचरण के पीछे उनकी वंशानुमात परम्परा भी है। गांधी नेहरू परिवार की बलिदानी परम्परा इतिहास का एक अंग है। भाजपा के प्रवक्ता व्यंग्य करते हुये कहते हैं कि यह दिखावा है, फोटोसेशन है, पाखण्ड है, नौटंकी है इत्यादि। इस देश की स्वतंत्रता में यह आजादी सबको है कि जन समस्याओं के लिए आन्दोलन करें, राहुल गांधी यदि पदयात्रा कर रहे हैं तो उन्होंने किसी अन्य पार्टियों या सामाजिक क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को किसी ने रोका नहीं है कि आप पदयात्रा नहीं करें या जनांदोलन न करें। यह अजीब बात है कि राहुल गांधी यदि मौन रहते हैं तो क्यों रहते हैं? यदि पदयात्रा करते हैं तो क्यों कर रहे हैं? अपनी अकर्मण्यता को छिपाने के लिये केवल दोषा रोपण करना अनुचित है।
एक समय था तब इंदिरा जी बिहार में दलितों को न्याय दिलाने के लिये बेलछी गई हुई थीं। बेलछी नरसंहार की दुदांत स्थिति से दु:खी होकर उनके दु:ख-दर्द को जानने के लिये उन्होंने कदम उठाया था। इसी तरह राहुल गांधी जमीनी हकीकत जानने के लिये बिहार में बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिये गये। कीचड़ में धंसे पांव,पैदल गये। आज दलितों के घरों में जाकर उनके यहां रात्रि विश्राम करना किसानों के दु:ख-दर्द को जानने के लिये पदयात्रा कर रहे हैं तो विरोधी पार्टियां नाक भोंह सिकोड़ रही है।
यही नहीं कांगे्रस के वरिष्ठ लोगों को भी उन्होंने चेताया है कि दिल्ली में बैठकर विकास की बातें न करें तथा गरीबों को न्याय दिलाना है तो जमीन पर काम करें भौतिकवादी सुख-सुविधाओं को त्याग कर जनता की सेवा करें। भ्रष्टाचार और अमर्यादित प्रसंग से बचें अन्यथा जनता और समय माफ नहीं करेगा। पूज्य महात्मा गांधी ने जिस दर्शन से सिद्धान्तों और आदर्शों के  सहारे गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलायी। सत्य का आचरण किया, निष्ठा से जन हिताय काम किये वो आज  भी प्रासंगिक हैं। अपनी विरासत और परम्परा को अक्षुण्ण रखना है तो आज हम सबको अपना नजरिया बदलना चाहिये।
पहले हम विकसित नहीं थे, गुलाम थे किन्तु उस समय हमारे गोपाल कृष्ण गोखले पं. मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, टैगोर जैसे अनेकों थे। आज हम आजाद हैं विकसित हो रहे हैं किन्तु हमारे कद छोटे हो रहे हैं हम सब बौने हो गये हैं। आज धनबल, बाहुबल के चलते राजनीतिक मूल्यों में गिरावट आ गयी है जन सेवा और विकास की जगह स्वयं सेवा और भ्रष्ट आचरण से धन अर्जित करना उद्देश्य बन गया है। इससे निजात पाने के लिये जमीनी संघर्ष शुरू करना होगा जिसकी शुरुआत राहुल गांधी ने की है। राहुल गांधी के मन में आम गरीब के प्रति पीड़ा है दु:ख है। राहुल गांधी दो टूक बातें करने में हिचकते नहीं हैं। अपनी पार्टी के मठाघीशों से भी  सच कहने में नहीं चूकते। कांग्रेस को जमीनी स्तर पर मजबूत करने का उनका संकल्प अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उन्होंने कांगे्रसजनों को एहसास कराने पर विवश कर दिया है। यह सही है कि गांधी अतीत भी हैं, भविष्य भी है। उत्तरप्रदेश में उन्होंने बिगुल बजा दिया है। दो राह समय का नांद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वो दुहराने के लिये अभिशप्त होते हैं। राहुल गांधी इतिहास से सबक लेकर महात्मा गांधी की विरासत को अक्षुण्ण बना रहे है। उनकी पदयात्रा भी महात्मा गांधी की मंशा के अनुरूप है। राहुल गांधी की पदयात्रा से आमजन में एक उत्साह का वातावरण निर्मित हुआ है। साथ ही कांगे्रस पार्टी में भी नई चेतना का संचार हुआ है।
 (लेखक डॉ. हरि सिंह गौर विवि सागर छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष है)

संतोषी सदा सुखी

Wednesday, July 20, 2011

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    डॉ. साधना बलवटे

बम धमाके की खबर मिलने के बावजूद बेटी के फैशन शो में बदस्तूर शिरकत करते रहे मंत्री महोदय हो या धमाके के तीन घंटे बाद बयान देने वाले प्रधानमंत्री जी की सूपर स्लो संवेदना एक्सप्रेस हो, या एनएसजीके जिम्मेदार अफसर हो, जो समय पर सहायता के लिए भी नहीं पंहूच पाए। कहने का तात्पर्य यह कि नेता हो या अफसर या नेतानुमा अफसर हो या अफसरनुमा नेता, क्या फर्क पड़ता है सब दो मुंहे सांप हैं दोनों तरफ से काटेंगे, फंूफकारना,काटना,खाना उनका जन्मसित अधिकार है। कुत्ते की दुम सीधी हो जाए तो ऐतिहासिक परिवर्तन और नेता अफसर खाना छोड़ दें तो जन्मपत्री पर जूता। पर बस भई बहुत हुआ! अब समय आ गया है कि हम नेताओं के बारे में अपनी राय बदल ले! बहुत हो गया रिश्वतखोरी पर राग आलापना भ्रष्टाचार पर भाषण देना, काले धन पर कागज काले करना और काली करतूतों को कोसना। बाबा रामदेव अपनी धोती कस कर बांध लें क्योंकि सरकार गांठें खोलने की कला में माहिर हो गई है, या यूं कहे कि बेशर्मी के हूनर में सिलहस्त। संवेदना के दरबार में खुद को नंगा करने की ताकत हर किसी में नहीं होती और फिर नंगों से तो भगवान भी डरते है अन्ना बाबा क्या चीज है। पुराने लोग कह गए हैं संतोषी सदा सुखी! हमारी सरकार और के नेताओ ने यह सूत्र जीवन में उतार लिया है, वो तो बूरा हो इन मीडिया वालों का ‘बात टपकी नहीं कि लपकी,’ इन्हीं की वजह से ये संत जन अपनी अंतर्मन की आवाज जग जाहिर नहीं कर पा रहे हैं ‘ऐसे धमाके तो रोज होते रहते है’ कह कर तसल्ली करना पड़ रहा है वरना कहना तो शायद यह चाहते हो कि ये आंतकी हमारे शुभ चिंतक है जो जनसंख्या नियंत्रण मे सहयोग कर रहे है हम इनके आभारी है! काश कि एक विस्फोट माननीय नेता जी के घर की तरफ हो और फिर ऐसे सद्वचन हमें सुनने को मिले ।
  देश को हमारे गृहमंत्री जी का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए, उन्हें बधाई के तार भेजे जाने चाहिए, उनकी प्रशंसा में संपादकीय और ब्लॉग लिखे जो चाहिए, वैसे भी यह देश उत्सव प्रियो को देश है उत्सव मनाया जाना चाहिए, आखिर उन्होंने इकतीस महीने देश को बचाए रखने का महान कार्य जो किया है और फिर आदमी कब तक कर्त्तव्य निष्ठा की जेल में बंद रहेगा, कम से कम पैरोल पर तो छूटेगा ही ऐसे में इक्के-दुक्के धमाके होना तो लाजमी हैं। फिर हमारे राष्टÑीय अतिथि कसाब का जन्मदिन भी तो था लाड़ला पूरे 24 साल का हो गया, अतिथी देवो भव: की परम्परा हम कैसे भूला सकते है, ये बस उसी का तोहफा समझ लीजिए! भइ तोहफा लेना ओर देना तो उसका मानव अधिकार है। ये मानव अधिकार ही तो है जो देश के कर्णधारों को नपुंसकता का ऐसा विषराधी इंजेक्शन लगा देता है कि आंतकवाद का काला नाग कितना भी जहर उगले उन पर असर नहीं करता, ये मानव अधिकार ही तो है जो करोड़ो खर्च कर के भी कसाब और अफजल जैसे जहरीले नाग पालने को मजबूर कर देता है ।
 अब आप ही बताइए इससे अधिक संतोषी जन कहीं मिलेंगे, सब गांधी जी के बंदर हो गए है न बुरा दिखता है, न सुनते हैं और तो और चाहे इनके आतंकी जी ही क्यो न हो उनके बारे में भी बुरा नहीं कहते, यहां तक कि भावी पीढ़ी में बखूबी संस्कार बो रहे हैं । तभी तो हमारे राहुल बाबा को अमरीका के बाहर रह रहे अमेरिकियों में और अपने ही देश में आतंकी हमलों में जान गंवा रहे भारतीयों में कोई अन्तर नजर नहीं आता, धन्य हैं ये संतोषी जन और महान है इनके विचार। और हां किस शहर को कितने दिन बचाना है और कब ढील देनी है। गृहमंत्री जी जरा तफसील से बता दें तो हम उनके बड़े शुक्रगुजार होंगे। हम पृथ्वीवासी ही क्यों यमलोक भी आपको धन्यवाद जरूर देगा, आखिर सांसों की गिनती का हिसाब किताब आपने अपने हाथों में लेकर उनका वर्कलोड जो कम कर दिया ।

तरुवर की छाया

Saturday, July 9, 2011

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हमारी संस्कृति में पेड़-पौधों का अपना अलग ही महत्व है। इसके अलावा इनका औषधीय उपयोग भी है। घर बनाने से लेकर शादी रचाने में इनका उपयोग किया जाता है। बीमारी को दूर करने में भी कारगर साबित होते हैं। ऐसे ही कुछ पेड़ों की चर्चा यहां कर रहे हैं, जिनका उपयोग इमारती लकड़ी के लिए किया जाता है, साथ ही औषधीय महत्व भी रखते हैं। आप भी इन पेड़ों को अपने घर के आस-पास लगा सकते हैं। इससे आपको छाया भी मिलेगी और इमारती लकड़ी का उपयोग भी कर सकेंगे। बच्चों यदि आप अभी कोई पेड़ लगाते हैं, तो 10-15 सालों में उसका लाभ जरूर मिलेगा जो आपको तो फायदा देगा ही, साथ ही पर्यावरण को बचाने में भी महती भूमिका निभाएगा।

साल-
मप्र के बांधवगढ़ नेशनल पार्क के अलावा प्रदेश के कई स्थानों में पाया जाता है। इसके अलावा उत्तराखंड स्थित जिम कार्वेट और उप्र के दुधवा नेशनल पार्क में इसके पेड़ बहुतायत से देखे जाते हैं। इसको कई नामों से भी जाता है जैसे- शाल, सराई, सरगी, साल्वा, साखू, साल, कन्दार और सेकवा नाम इत्यादि। यह लंबाई में बहुत ऊंचा उप पर्णपाती वृक्ष है। इसकी ऊंचाई 30 मीटर से भी अधिक हो सकती है। इसकी पत्तियां आकार में बड़ी हल्की मखमली सी होती हैं। हल्का हरा-पीला रंग लिए होती हैं। इमारती लकड़ी में इसका उपयोग किया जाता है।

औषधीय उपयोग-
इससे प्राप्त रेजिन का अपना अलग महत्व है। डायरिया और पेचिश में इसका उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। इसके अलावा इसका यूज त्वचा रोग से जुड़ी क्रीम्स और मलहम में भी होता है। इसके अलावा फुट केयर क्रीम में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। इसके साथ ही आयली स्किन के लिए क्लींजर के रूप में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। बाल धोने के काम भी आता है।

अन्य उपयोग- इसके अलावा ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में इसका उपयोग टोकरी, पत्तल और दोने बनाने में भी होता है। आदिवासी समुदाय शादी का निमंत्रण इसके पत्तों पर लिखकर ही देते हैं। इसकी पत्तियों से आसवन से प्राप्त तेल का उपयोग इत्र बनाने में किया जाता है।

Classification
Kingdom -Plantae
Class- Magnoliopsida
Order- Malvales
Family - Dipterocarpaceae
Scientific Name- Shorea robusta


नीम -

उत्तर-पूर्वी और मध्य भारत में नीम का पेड़ बहुतायत से पाया जाता है। गांवों से लेकर जंगली क्षेत्रों में भी इसे आसानी से देखा जा सकता है। इसे मिरेकल ट्री यानि चमत्कारों वाला पेड़ भी कहा जाता है। वर्ष भर हरे रहने वाले इस पेड़ की पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं। पेड़ की लंबाई 100 फिट तक होती है। बसंत ऋतु में इसमें फूल आते हैं। गर्मियों के दिनों में फल लगते हैं, जिन्हें निबोरी कहा जाता है। पके हुए फल को खाया जाता है। इससे निकले बीजों से तेल तैयार किया जाता है। पेड़ की छाल गहरे कत्थई रंग की होती है।

औषधीय उपयोग-
नीम का उपयोग औषधीय उपयोग के लिए 4000 सालों से किया जा रहा है। इसके तेल का उपयोग पेस्ट कंट्रोल और कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स में होता है। वहीं पत्तियों से चिकनपॉक्स का उपचार किया जाता है। हिंदू मान्यता के अनुसार शीतला माता इस पेड़ में वास करती हैं। इस पेड़ का चिकित्सीय उपयोग करने से सारे कष्टों का हरण हो जाता है। त्वचा रोग और सर्दी-बुखार में यह बड़ा ही लाभकारी होता है। इसके अलावा नीम की डड्यिों का उपयोग लोग दातून के रूप में भी करते हैं। इससे दांत तो साफ होते ही हैं, साथ ही दंत रोगों से भी छुटकारा मिलता है। इसके अलावा इसकी लकड़ी का उपयोग फर्नीचर के रूप में भी किया जाता है। साथ ही इसका सांस्कृतिक महत्व भी है। भारतीय मान्यता के अनुसार शादी से पहले लड़की नीम की पत्तियों को पानी में उबालकर तैयार जल से स्नान करती है। वहीं बच्चे के जन्म के बाद माता इससे तैयार जल से शरीर शुद्ध करती है।


Classification
Kingdom- PlantaePlantae
Class - Magnoliopsida
Order - Sapindales
Family- Meliaceae
Scientific Name - Azadirachta indica

ब्रह्मी-

मप्र के बांधवगढ़ नेशनल पार्क में इसे आप आसानी से देख सकते हैं। गद्दीदार हल्की गोलाकार गुच्छे में हरे रंग की पत्तियां आपको जमीन में दूर से ही दिख जाएंगी। यह बेल के रूप में जमीन में फैलती है। इसकी शाखाओं की लंबाई अधिकतम् 3 फिट तक ही होती है। यह मप्र के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, हिमांचल प्रदेश और उत्तराखंड में भी पायी जाती है।

औषधीय उपयोग-
इसे खासतौर पर चिकित्सीय उपयोग के लिए ही जाना जाता है। यह ब्रोंकायटिस, क्रोनिक कफ, अस्थमा, अर्थराइटिस, गठिया, बाल झड़ना, पेट के रोग और त्वचा रोग में लाभकारी साबित होता है। आयुर्वेद के अनुसार इसमें एंटी-आॅक्सीडेंट गुण पाए जाते हैं। यह कार्डियो वेस्कुलर डिजीज में भी लाभ पहुंचाता है। इसमें विटामिन सी अधिकता में पायी जाती है। सलाद और सैंडबिच में भी इसका उपयोग किया जाता है। भारत में इसका उपयोग बुद्धिवर्धक के रूप में भी किया जाता है।

Classification
Kingdom -Plantae
Class-Magnoliopsida
Order - Lamiales
Family - Scrophuariaceae
Scientific Name - Bacopa monnieri

टीक -
मप्र के पेंच और सतपुड़ा नेशनल पार्क में यह बहुतायत से पाया जाता है। इसके अलावा गुजरात स्थित गिरि राष्ट्रीय उद्यान में भी इसके पेड़ देखे जा सकते हैं। इसे साक और टिक्का नाम से भी जाना जाता है। वर्षभर हरे रहने वाले इस पेड़ की लंबाई 30 मीटर तक होती है। इसमें ड्रूप फल लगते हैं। इसकी पत्तियां आकार में बड़ी होती हैं, देखने में तम्बाकू की पत्ती जैसी होती हैं। इसकी छाल हल्के भूरे रंग की होती है। सामान्यत: इसके पेड़ लंबाई में सीधे होते हैं। इमारती लकड़ी के अलावा इसका उपयोग होता है। भारत में पाई जाने वाली इमारती लकड़ियों में सबसे अधिक कीमत की लकड़ी में इसकी गिनती होती है। इसकी लकड़ी की खासियत यह होती है कि दीमक लगने की संभावना न के बराबर होती है।

औषधीय उपयोग-
इसकी पत्तियों से कपड़ों की डाई बनाने का काम किया जाता है। इससे प्राप्त रंग का उपयोग खाने के रंग के तौर पर भी किया जाता है। इसके सेवन से फीवर और हैडेक में लाभ पहुंचता है।


Classification
Kingdom- Plantae
Class-Magnoliopsida
Order-Lamiales
Family-Verbenaceae
Scientific Name - Tectona grandis

शीशम-

भारत में यह उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में आसानी से मिल जाता है। इसके पेड़ की लंबाई 25 मीटर हो सकती है। मोटाई 2-3 मीटर तक होती है। शाखाओं और घनी पत्तियों से ढका रहने वाला यह बहुवर्षीय पेड़ है। यह पंजाब का राज्य पेड़ भी है।
इमारती लकड़ी के रूप में इसका बहुतायत से उपयोग होता है। भारत में टीक की लकड़ी के बाद शीशम की लकड़ी का उपयोग बहुतायत से होता है। इसकी लकड़ी टिकाऊ और मजबूत होती है। फर्नीचर, खिड़की और दरवाजे बनाने में भी इसका खूब उपयोग होता है। पकी लकड़ी का रंग गहरे भूरे रंग का होता है। संस्कृत में इसे अगरु, अंग्रेजी में रोजवुड, तमिल में येते और बंगाली में शीशू कहते हैं।

औषधीय उपयोग- इसका अपना अलग चिकित्सीय महत्व है। शीशम के तेल को शरीर पर लगाने से नए सेल्स और ऊतकों का निर्माण होता है। यही वजह है कि चेहरे की झुर्रियों में इससे निजात मिलती है। ड्राई और आॅयली स्किन की समस्या से ग्रसित लोग भी इसका उपयोग कर सकते हैं। इसके अलावा इसके तेल का उपयोग परफ्यूम बनाने में भी होता है।


Classification
Kingdom - Plantae
Class- Magnoliopsida
Order- Fabales
Family -Fabaceae
Scientific Name -Dalbergia sissoo

  (यह जानकारी भोपाल से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र एलएन स्टार में प्रकाशित हुई है। )

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Monday, June 27, 2011

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आज के दौर में पढ़ाई करना जितना कठिन है, उतना ही आसान भी है। आप यदि थोड़ा भी जागरुक हैं, तो आसानी से अपनी पढ़ाई जारी रख सकते हैं। ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन, डॉक्टोरल प्रोग्राम्स और डिग्रियों के लिए कई ट्रस्ट और कंपनियां, संस्थान, मंत्रालय, सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं फेलोशिप और स्कॉलरशिप निकालती हैं। इनमें एप्लाई करके आप अच्छे संस्थान या विश्वविद्यालय से पढ़ाई भी कर सकते हैं। इससे न ही आपके परिवार पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और आपकी पढ़ाई भी आसानी से पूरी हो जाएगी। ऐसी की कुछ स्कॉलरशिप और फेलोशिप की चर्चा यहां कर रहे हैं।


फुल ब्राइट मास्टर्स फेलोशिप लीडरशिप डवलपमेंट
डवलपमेंट के क्षेत्र में कार्य करने के लिए उत्सुक युवा भारतीय यूएस के सेलेक्टेड कॉलेजों से डवलपमेंट के क्षेत्र में मास्टर डिग्री प्रोग्राम्स में दाखिला ले सकते हैं। इतना ही नहीं जो विश्वविद्यालय आर्ट एंड कल्चर मैनेजमेंट जैसे कि हेरीटेज कंजर्वेशन, म्यूजियम स्टडीज, काम्युनिकेशन स्टडीज, कॉन्फिलिक्ट रिजोल्यूशन, इकोनॉमिक्स, पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, शहरी और ग्रामीण प्लानिंग से संबंधित कोर्स कर सकते हैं। मास्टर्स डिग्री के लिए वहीं अभ्यर्थी आवेदन कर सकते हैं, जिन्होंने यूएस स्नातक डिग्री के बराबर स्नातक किया हो।
भारत के किसी विश्वविद्यालय से यदि चार वर्ष की स्नातक डिग्री पूरी नहीं की हो, तो संबंधित क्षेत्र में तीन से 1 साल के बीच का प्रोफेशनल अनुभव होना आवश्यक है। यह फेलोशिप एक और दो वर्ष के लिए हो सकती है।

ये हैं फायदे
इस फेलोशिप के निम्न फायदे हैं जैसे कि वीजा सपोर्ट, ट्यूशन फीस, रहने-खाने का खर्च इत्यादि।
आयु- 25-30 वर्ष
आवेदन की अंतिम तिथि- 15 जुलाई 2011

अधिक जानकारी के लिए देखें-
http://www.fulbright-india.org/


बुलब्राइट नेहरू डॉक्टोरल एंड प्रोफेशनल रिसर्च फेलोशिप
जो अभ्यर्थी भारत के किसी विश्वविद्यालय में पीएचडी के लिए पहले से ही रजिस्टर्ड हैं। इस फेलोशिप का लाभ ले सकते हैं। इसके तहत वह 9 महीने के लिए यूएस के संबंधित विश्वविद्यालय में प्रोफेशनल एक्स्पेरिंस ले सकते हैं।

ये हैं फील्ड
अभ्यर्थी एग्रीकल्चरल साइंसेज, इकोनॉमिक्स, एजुकेशन, एनर्जी, सस्टेनेबल डवलपमेंट एंड क्लाइमेंट चेंज, एन्वायरमेंट, इंटरनेशनल रिलेशंस, मैनेजमेंट एंड लीडरशिप डवलपमेंट, मीडिया एंड कम्यूनिकेशन (ब्रॉड कास्टिंग), पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, साइंस एंड टेक्नोलॉजी, सोसायटी एंड कल्चर सहित कई अन्य विषयों पर आप प्रोफेशनल वर्क एक्सीपीरिएंस के लिए एप्लाई किया जा सकता है।
आवेदन की अंतिम तिथि- 15 जुलाई २०११

अधिक जानकारी के लिए देखें-
http://www.usief.org.in/


रोडेस स्कॉलरशिप इंडिया 2011साइंस, ह्यूमेनिटीज, लॉ एंड मेडिसिन क्षेत्र में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण स्नातक अभ्यर्थी इस फेलोशिप के लिए आवेदन कर सकते हैं। आवेदन की अंतिम तिथि 31 जुलाई 2011 है। इस फेलोशिप के जरिए यूके की आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पीजी प्रोग्राम के लिए दाखिला ले सकते हैं, लेकिन इसके लिए तय आहर्ताओं को पूरा करना आवश्यक है। स्नातक फाइनल वर्ष के अभ्यर्थी भी आवेदन कर सकते हैं, लेकिन 1 अक्टूबर 2012 के बीच उम्र 25 वर्ष से कम होनी चाहिए।

संपर्क
सचिव, रोडेस स्कॉलरशिप, इंडिया
आईसीजीईबी, अरुणा आसिफ अली मार्ग
नई दिल्ली, 110067
http://www.rhodesscholarships-india.com/


हवाई मेट्री स्कॉलरशिप
हवाई विश्व की जानी मानी टेलीकॉम सॉल्यूशन प्रोवाइडर कंपनी है। प्रतिभावान छात्रों को शिक्षा में आगे ले जाने के लिए स्कॉलरशिप प्रदान करती है। इस स्कॉलरशिप के लिए स्नातक कर रहे और उत्तीर्ण छात्र आवेदन कर सकते हैं। इसके स्कॉलरशिप के जरिए चाइना के प्रमुख संस्थानों से अभ्यर्थी पीजी प्रोग्राम कर सकते हैं। इस स्कॉलरशिप का मुख्य उद्देश्य भारतीय और चीन के बीच सोशल एंड कल्चरल इंटरचेंज को बढ़ावा देना है। स्कॉलरशिप के  तहत अभ्यर्थी के पढ़ने और रहने और खाने का पूरा व्यय वहन   किया जाएगा।

संपर्क
आवेदन की अंतिम तिथि - 30 जून 2011
रिजल्ट - 31 जुलाई २०११

http://www.huaweischolarships.org/


एजुकेशनल स्कॉलरशिप
साहू जैन ट्रस्ट की ओर से 2011-2012 के लिए मेरिट बेस्ट एजुकेशनल स्कॉलरशिप निकाली जाएगी। इसमें इंजीनियरिंग, मेडिकल से संबंधित प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए दी जाने वाली ग्रांट भी शामिल है। इसके अलावा टेक्निकल ट्रेड से जुड़े कोर्स जैसे कम्प्यूटर्स इन्फोटेक शामिल हैं।
ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन से जुड़े कोर्सेज के लिए भी स्कॉलरशिप प्रदान की जाएगी।

संपर्क
आवेदन की अंतिम तिथि - 20 जुलाई 2011
http://www.huaweischolarships.org/


ए स्टार यूथ स्कॉलरशिप्स 20121 जून से 15 जुलाई के बीच अभ्यर्थी इस यूथ स्कॉलरशिप के लिए आवेदन कर सकते हैं। यह स्कॉलरशिप वैसा सिंगापुर से सेलेक्टेड इंस्टीट्यूशन से एजुकेशन पूरा करने का मौका देती है। एक्जाम के दौरान यदि अभ्यर्थी का परिणाम उम्दा व संतोषजनक रहा तो फेलोशिप प्रदान की जाती है। इतना ही नहीं रिसर्चर को भी इसके तहत एज ए रिसर्च स्कॉलर के रूप में चुना जाता है।

ये है जरूरीभारत का नागरिक हो
1995-1997 के बीच जन्मा हो
2011 में आठवीं उत्तीर्ण किया हो
एकेडेमिक रिकार्ड अच्छा रहा हो। 80 फीसदी अंक अभी तक की परीक्षाओं में प्राप्त किए हों। इसके अलावा इंग्लिश लिखने और बोलने में निपुणता हो।

यूं करें   आवेदनअभ्यर्थी आनलाइन आवेदन के लिए एप्लाई 15 जुलाई 2011 तक कर सकते हैं।

सेलेक्शन टेस्ट
जिन्होंने फेलोशिप के लिए आवेदन किया है उनके लिए सेलेक्शन टेस्ट अगस्त के अंतिम सप्ताह और सितंबर के पहले सप्ताह के बीच आयोजित किया जाएगा।

इंटरव्यू
रिटन टेस्ट पास करने वाले अभ्यिर्थियों के लिए अक्टूबर और नवंबर के बीच में इंटरव्यू प्रक्रिया आयोजित होगी।

अवार्ड
इंटरव्यू को उत्तीर्ण करने वाले अभ्यर्थियों के लिए नवंबर के बीच में स्कॉलरशिप की घोषणा की जाएगी। इसके बाद दिसंबर 2011 के अंत में स्कॉलर को सिंगापुर पहुंचना होगा।

टेस्ट के संभावित सेंटर 
स्कॉलरशिप टेस्ट के लिए संभावित सेंटर इंडिया में ये हो सकते हैं।
 बंगलूरु
 कलकत्ता
 चेन्नई
 दिल्ली
 मुंबई

अधिक जानकारी के लिए देखें-
www.moe.gov.sg/education/scholarships/astar/
ये दस्तावेज हैं जरूरी
चाइल्ड बर्थ सर्टिफिकेट, पासपोर्ट, एकेडमिक रिकार्ड के कागजात



जेनिंग्स रंडोल्फ सीनियर फेलोशिप 2012-13
स्कॉलर्स , पॉलिसी एनालिसिस्ट, पॉलिसी में कर, जर्नलिस्ट के अलावा दूसरे विशेषज्ञों के लिए जेनिंग्स रंडोल्फ सीनियर फेलोशिप दी जाती है। इसके तहत लोगों को संस्थान में रहना होगा, जहां इंटरनेशनल पीस और सिक्योरिटी चैलेंज से संबंधित मामलों की पढ़ाई करनी होगी। यह फेलोशिप दस महीने के लिए दी जाएगी जो अक्टूबर से शुरू होगी, लेकिन शॉर्ट टर्म फेलोशिप भी उपलब्ध है। किसी भी देश का कोई भी नागरिक इसके लिए आवेदन कर सकता है। हर साल 10-12 लोगों को फेलोशिप प्रदान किया जाता है। इस फेलोशिप के लिए आवेदन करने के लिए आवेदकों को पॉलिसी से संबंधित प्रोजेक्ट जमा करना होगा। इतिहास से संबंधित टॉपिक्स भी हो सकते हैं। एरिया स्टडीज प्रोजेक्ट और सिंगल स्टडीज की तुलना की जा सकती है।

क्या हो योग्यता
किसी भी देश का नागरिक इस फेलोशिप के लिए आवेदन कर सकता है। जो अमेरिकी नागरिक नहीं हैं, उन्हें जे-वन एक्सचेंज विजिटर वीजा मिलेगा। इस फेलोशिप के लिए कोई खास एजुकेशनल डिग्री की जरूरत नहीं है। फेलो का प्रोफेशनल बैकग्राउंड होना चाहिए। जो अभ्यर्थी इंटरनेशनल सिक्योरिटी, पीस बिल्डिंग, पब्लिक अफेयर जैसे सरकारी संस्थान या एनजीओ में कार्यरत हैं, या फिर डिप्लोमेट, नेगोसिएटर, मिडियेटर, लेबर लीडर आदि हैं, वे आवेदन कर सकते हैं। कॉलेज और यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर भी योग्य हैं। साथ ही, जर्नलिस्ट, एडिटर और प्रोड्यूसर भी इस फेलोशिप के लिए आवेदन कर सकते हैं।

यूं होगा सेलेक्शन
प्रोजेक्ट की सार्थकता, प्रोजेक्ट डिजाइन, इंप्लीमेंटेशन, ट्रैक रिकॉर्ड के अलावा अभ्यर्थी की क्षमता को ध्यान में रखते हुए अभ्यर्थी का चयन किया जाएगा।

क्या करना होगा
फेलो को संस्थान में रहकर अपने कामों का प्रदर्शन करना होगा और वर्कशॉप, कॉन्फ्रेंस के अलावा दूसरी गतिविधियों में शामिल होना होगा। संस्थान में कॉलेजियल और इंटलेक्चुअल रिसोर्स के साथ इंट्रेक्ट भी होना होगा। किताब या मोनोग्राफी यूएसआईपी प्रेस के जरिए प्रकाशित करना होगा। संस्थान में पीस वर्क रिपोर्ट या स्पेशल रिपोर्ट प्रकाशित करना होगा। प्रोफेशनल या एकेडमिक जर्नल्स में आर्टकिल्स भी प्रकाशित करना होगा। डिमॉन्स्ट्रेशन के साथ-साथ टीचिंग, लेक्चर्स आदि में शामिल होना होगा।

फाइनेंशियल सहायता
10 महीने तक अधिकतम एक लाख अमेरिकी डॉलर तक संस्थान 80 फीसदी हेल्थ प्रीमियम वहन करेगा, जिनमें फेलो के साथ-साथ योग्य डिपेंडेंट भी शामिल होंगे। वाशिंगटन आने-जाने का खर्च भी शामिल रहेगा।
अधिक जानकारी के लिए देखें-
www.usip.org/fellows/index.html
आवेदन की अंतिम तिथि - 8 सितंबर २०११



हम लड़कियां बदलेंगी दुनिया

Saturday, June 11, 2011

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हर क्षेत्र में लड़कियों ने अपना नया मुकाम तय किया है। शिक्षा, बिजनेस, फिल्म, मॉडलिंग, प्रशासन और राजनीतिक से लेकर हर एक फील्ड में अपनी अहम जगह बनाई है। इतना ही नहीं दिन-दूनी, रात-चौगनी रफ्तार से बढ़ रही लड़कियों के जीने का तरीका भी पहले की आम लड़की के मुकाबले अलग है। लड़कों के साथ बात करने, काम करने और उनका सामना करने में वे बिल्कुल भी नहीं झिझकती हैं। एक जमाना था, जब कोई लड़की किसी लड़के से अगर बात करे, तो आमने-सामने वाले उसके चरित्र पर अंगुली उठाने में भी नहीं कतराते थे। अब आलम यह है कि लड़कियों ने स्वयं को साबित करके सभी की बोलती बंद कर दी है। लड़कियां लड़कों के सामने पूरे आत्मविश्वास और मजबूती से खड़े होने का मद्दा रखती हैं। यही वजह है कि समाज ने भी उनकी क्षमताओं को स्वीकारा है। छोटे-छोटे गांव से निकलर लड़कियां शहर की ओर रुख कर रही हैं। बेहतर तालीम हासिल करके अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। इंजीनियरिंग, मेडिकल, शिक्षा और प्रशासनिक पदों पर अपने को शोभायमान कर रही हैं। आईएएस 2011 की टॉपर एस दिव्य दर्शिनी ने भी अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करके लड़कियों की रोल मॉडल बनी हैं।  दो साल पहले भी सुभ्रा श्रीवास्तव ने पहली रैंक प्राप्त करके महिलाओं में प्रशासनिक बागडोर थामने का जज्बा पैदा किया था। इतना ही नहीं अपनी अभिव्यक्ति को भी पूरा तवज्जो दे रही हैं। पढ़ाई से लेकर शादी और शादी के बाद की लाइफ स्टाइल जीने का तरीका भी वे स्वयं तय कर रही हैं। प्लानिंग और मैनेजमेंट करना भी उन्हें खूब आता है। करियर और पारिवारिक जीवन में संयोजन कैसे बिठाना है। यह भी खूब अच्छी तरह से जानती है। यही कारण है कि शादी से जुड़े मुद्दों पर वे खुलकर बोलने को तैयार हैं। किस तरह का लड़का चाहिए। उसमें क्या गुण होने चाहिए, एकेडेमिक और फैमिली बैकग्राउंड को भी अपनी पसंद में शामिल कर रही हैं। आज की लड़कियां आत्म निर्भर हैं। अपनी तरह से जीना जानती है। उन्हें क्या पहनना है, क्या खाना है, भविष्य की दिशा क्या हो। इसका निर्णय वे स्वयं लेना चाहती है। समाज को इस बात को स्वीकारना होगा। काफी हद तक इसका असर सामाजिक परिवेश में दिखाई भी दे रहा है। पहले के समय में यदि कोई लड़की अपनी पसंद से शादी करने के लिए परिवार के सामने प्रस्ताव को रखती थी, तो उसे आड़े हाथों लेकर उसकी भावनाओं का दमन कर दिया जाता था, लेकिन आज आलम यह है कि लड़कियां अपनी पसंद और न पसंद के बारे में खुलकर बात करने लगी हैं। लव मैरिज करने पर परिवार का ही नहीं समाज का भी सहयोग मिलने लगा है। सिर्फ कुछ अपवादों को छोड़कर। पिछले पांच सालों में 15-20 मामले मैंने स्वयं देखे हैं, जिनमें लव मैरिज को तवज्जो मिला। जहां पहले लोग लव मैरिज के नाम पर शादी में शामिल होने से कतराते थे, वही अब वर-वधू को आर्शीवाद देने के लिए स्वयं आगे आ रहे हैं। यह सब तभी संभव हुआ है, जब सामाजिक परिवेश में रहते हुए लड़कियों ने अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया। लेकिन सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए उन्होंने बहुत कुछ पीछे भी छोड़ दिया है, शायद उसकी भरपाई वे जीवनभर नहीं कर सकेंगी। प्यार के छल रूपी जाल में फंसकर उन्होंने अपनी भावनाओं और अस्तित्व को भी खतरे में डाल दिया। कौन सी सफलता के लिए उन्होंने अपने आप को इस तरह के जाल में फंसाया। इसका जवाब तो एक लड़की स्वयं दे सकती है। मेट्रो कल्चर की भागदौड़ में शामिल होकर उन्होंने स्त्री होने के अस्तित्व को भी खतरे में डाला है। नेम और फेम के पायदान चढ़ते हुए उन्होंने इस बात की भी परवाह नहीं की, लड़की होने के मायने क्या हैं। इस धरती पर उनके होने की वजह क्या है। उनका दायरा क्या है। व्यक्तिगत जीवन और प्रोफेशनल लाइफ को उन्होंने एक ही भाव में तौला, जिसने समूची स्त्री जाति के सामने प्रश्न खड़े कर दिए हैं। स्वतंत्रता के मायनों को न समझते हुए उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को स्वछन्दता में तब्दील कर दिया। मान-मर्यादा की चिंता किए बगैर ऐसे काले कारनामें उनके द्वारा  किए गए हैं, जिन्हें जानकर और पढ़कर एक सीधी-सादी लड़की का मन भी कांप उठे। एक लड़की को सही और गलत निर्णय लेने का हक है, लेकिन अपनी निजता को बचाए रखने की जिम्मेदारी भी उसी की है। यदि इस बात को दौलत की भूखी बालाओं ने नहीं समझा तो आने वाले समय में उनके लिए राहें आसान नहीं, बल्कि और कठिन हो जाएंगी। उनकी वजह से सीधी-सादी बालाओं पर भी समाज लांछन लगाने में नहीं कतराएगा। उनका समाज में जीना दूभर हो जाएगा। हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए ‘जितनी चादर हो, उतने ही पैर फैलाएं। पैसे की दौड़ में शामिल होकर अपनी अमूल्य धरोहर को पीछे छोड़कर कहां जाना चाहते हैं। इसका निर्णय स्वयं लेना होगा।

फैशन का है ये जलवा

Saturday, June 4, 2011

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नेम और फेम पाना हर किसी की तमन्ना होती है। लड़कियां भी अपने हुनर का जलवा दिखाकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना मुकाम कायम करना चाहती हैं। फैशन और सौन्दर्य की दुनिया में सितारों की तरह चमकना भी हर एक लडक़ी चाहती है। हमारे देश में ऐसी कई लड़कियां सामने आईं हैं, जिन्होंने बहुत छोटी सी जगह से निकलकर अपना नाम का परचम राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया है। मप्र के देवास जिले की रहने वाली नेहा हिंगे ने फेमिना मिस इंडिया इंटरनेशनल बनकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अपनी दावेदारी का बिगुल बजा दिया है। तेज दिमाग और अच्छे व्यहार से हर कोई मिस इंडिया, मिस वर्ल्ड और मिस यूनीवर्स का खिताब अपने नाम कर सकता है। ऐसी ही चुनिंदा प्रतियोगिताओं की बात इस अंक में कर रहे हैं।

मुझे है बनना मिस इंडिया -
इस वर्ष 2010 मिस इंडिया वर्ल्ड  का खिताब मनस्वी ममगई को दिया गया है ।  दिल्ली की 22 वर्षीय बाला मनस्वी बॉलीवुड में कदम रखकर फिल्मी दुनिया में अपना नाम कमाना चाहती हैं। वैसे मिस इंडिया वर्ल्ड को फिल्म इंडस्ट्री में शाहरुख  खान और फराह खान पसंद हैं । मनस्वी का मुख्य उदद्द्देश्य मिस वर्ल्ड के खिताब को अपने नाम करना है। इसके लिए उन्होंने तैयारी भी शुरू कर दी है।  निकोल फाइरिया को मिस इंडिया अर्थ और मध्य प्रदेश की नेहा हिंगे को मिस इंडिया इंटरनेशनल चुना गया है। नेहा हिंगे की मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में दावेदारी करने से साफ जाहिर होता है कि प्रदेश की लड़कियां भी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए आगे आ रही हैं। पेशे  से सॉफ्टवेयर इंजीनियर और मॉडलिंग का शौक रखने वाली देवास जिले की 23 वर्षीय नेहा हिंगे ने देश में आज अपनी अलग पहचान बनाई है।  मॉडलिंग का शौक रखने वाली लड़कियां इन प्रतियोगिताओं में शामिल होकर अन्तर्राष्ट्रीय  ख्याति पा सकती हैं।

कैसे शामिल हो मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में -
मिस इंडिया बनने के लिए बौद्धिक क्षमता के साथ -साथ कद-काठी को भी सही रूप देना होगा।  फेमिना मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में शामिल होकर मिस इंडिया का खिताब हासिल किया जा सकता है। लेकिन प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए भारतीय और अविवाहित होना जरूरी है । उम्र 18 से 23  साल के बीच  होना चाहिए। प्रतियोगिता कराने वाले संगठन या स्पॉन्सर में  परिवार को कोई भी व्यक्ति कार्यरत नहीं होना चाहिए।

 देश के 13 शहरों में होती है चयन प्रक्रिया -

 फेमिना मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में शामिल होने वाले प्र्िरतनिधियों के लिए वॉक इन प्रतियोगिता देशभर 13 स्थानों पर सालभर में अलग-अलग समय पर आयोजित होती है।  इसमें लखनऊ, आगरा, इंदौर, चंडीगढ़, कोलकता, भुवनेश्वर, गोवाहाटी, नासिक, अहमदाबाद, गोवा, जयपुर और शिमला शामिल हैं। प्रतियोगिता में शामिल होने प्रतिनिधियों को जानकारी देने के लिए  समय-समय पर विज्ञापन रेडियो, टीवी, वेब और प्रिन्ट माध्यम के जरिए प्रकाश में लाए जाते हैं। इसके अलावा इच्छुक प्रतिभागी BollywoodBilli.com  पर जानकारी ले सकते हैं।
मिस इंडिया की विनर प्रतिभागी मिस यूनीवर्स, प्रतियोगिता की रनरअप मिस वर्ल्डऔर सेकंड रनरअप  मिस एशिया पैसिफिक में शामिल हो सकती है । लेकिन मिस इंडिया विनर उसी वर्ष मिस यूनीवर्स के लिए नामांकित नहीं हो सकती है। फेमिना मिस इंडिया कॉन्टेस्ट की ओर से तय नियम के अनुसार इसे नहीं किया जा सकता है।

महत्वपूर्ण तथ्य - मिस इंडिया का खिताब जीत चुकी प्रतिभागी 1953 से मिस यूनीवर्स के लिए नामांकित की जा रही हैं ।  इसकी शुरूआत इंद्रणी रहमान ने की । वहीं मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में शामिल होने की पहल 1959 में  फ्लूयर एजेकिल ने की ।

भारतीय मिस इंडिया प्रतियोगिता में कुछ ऐसी ही भारतीय शख्सित हैं जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाली सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में परचम लहराकर अपना ही नहीं देश का नाम ऊंचा किया है।

मिस यूनीवर्स -

1994 - सुष्मिता सेन
2000 - लारा दत्ता
मिस वर्ल्ड -
1994 - एश्वर्या राय्र
1997 - डायना हेडेन
1999 - युक्ता मुखी
2000 - प्रियंका चोपड़ा 

मिस अर्थ -
2006 - अमृता पात्की  - महाराष्ट्र - मिस अर्थ एयर

मिस इंडिया पैसिफिक -

* जीनत अमान-  1970
* तारा अन्ना फोन्सेका - 1973
*  दिया मिर्जा -  2000

दशक की चुनी गई मिस यूनीवर्स -

* इंडिया -  लारा दत्ता -                       2000
*  प्यूरेटो रिको - डेनिस क्यूनॉनेस-    2001
* रशिया- आग्जाना फेडोरोवा -            2002
* स्पैनिश - अमेला वेगा -                   2003
* आस्ट्रेलिया - जैनिफर हाकिंग्स -      2004
* कनाडा - नेताली ग्लोबोवा -              2005
* प्यूरेटो रिको - जुलाइका राइवेरा -   2006
* जापान - रियो मोरी -                       2007
* वेनुजुएला - डायना मेन्डोजा -          2008
* वेनुजुएला - स्टेफेनिया फर्नाडीज -   2009

2010 की मिस यूनीवर्स प्रतियोगिता  लॉस वेगास, यूएसए में 23 अगस्त हुई। 59वीं मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में मेक्सिको की 22 वर्षीय सुंदरी जिमेना नेवरेटी ने यह ताज़ अपने नाम करते हुए 2010 की मिस यूनिवर्स कहलाने का गौरव हासिल किया। प्रतियोगिता में 50 से अधिक देशों के प्रतियोगी शामिल हुए।

कब शुरू हुई मिस यूनीवर्स प्रतियोगिता -
मिस यूनीवर्स प्रतियोगिता की शुरूआत 1952 में कैलीफोनिर्या की कपड़ा कंपनी पैसफिक मिल्स हुई।  पहली मिस यूनीवर्स प्रतियोगिता कैलॉफोनिर्या स्थित लॉस एंजेल्स में आयोजित हुई। इस दौरान फिनलैंड की अर्मी कुसैला मिस यूनीवर्स चुनी गईं। बाद में 1996 में  डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा इसे अधिग्रहित कर लिया गया। इस प्रतियोगिता में शामिल होने वाले   प्रतिभागियों की उम्र कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए। साथ ही उनमें बुद्धिमत्ता, अच्छा व्यहार और सभ्यता का समावेश होना जरूरी है। 

ऐसे शुरू होती है मिस यूनीवर्स प्रतियोगिता -

 कुल 77 प्रतिभागियों के साथ प्रतियोगिता की शुरूआत की जाती है ।  प्रथम राउंड में सभी प्रतिभागियों के प्रेजेन्टेशन को देखा जाता है। इसे पे्रजेन्टेशन शो कहते हैं। इसमें से चयनित टॉप 15 को स्विम सूट प्रतियोगिता के लिए चयनित किया जाता है। इसमें 10 प्रतिभागियों को इवनिंग राउंड के लिए चुना जाता है और इसमें से 5 को इंटरव्यू के लिए चयनित किया जाता है। जिसमें से 1 को मिस यूनीवर्स का खिताब दिया जाता है। इसके अलावा बाकी प्रतिभागियों को बेस्ट नेचुरल कॉस्टयूम, मिस फोटोजेनिक, मिस कॉन्जेनिकली चुना जाता है ।  

मिस वर्ल्ड -
 मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता की शुरूआत इरिक मॉर्ले ने 1951 में  ब्रिटेन में की । इस प्रतियोगिता की दशर्कों ने  खूब सरहा। इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में दर्शक मौजूद रहते थे। ऐसा लगता था मानो वर्ल्ड कप या ओलंपिक की शुरूआत की जा रही हो। इस प्रतियोगिता को सबसे पहले बीबीसी ने 1959 में टेलीविजन पर दिखाना शुरू किया। इसके बाद 1980 से थॉमस टेलीविजन ने प्रतियोगिता को दिखाने का कॉन्टे्रक्ट ले लिया। 2009 की मिस वर्ल्ड जिब्राल्टर की कैएने एल्ड्रीनों को चुना गया । देखते हैं इस साल की प्रतियोगिता में यहा खिताब किसकी झोली में गिरता है। फिलहाल 2000 में प्रियंका चोपड़ा के मिस वलर्ड बनने के बाद से यह खिताब भारत के पाले में नहीं आया है। 2010 की मिस वर्ल्ड का खिताब मिस अमेरिका एलेक्जेंड्रिया मिल्स ने अपने नाम किया है। प्रतियोगिता का आयोजन 30 अक्टूबर को चाइना के सान्या शहर में हुआ।

मिस अर्थ -

पर्यावरण  के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मिस अर्थ प्रतियोगिता वर्ष में एक बार आयोजित की जाती है। मिस यूनीवर्स और मिस वर्ल्ड की तरह की यह भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की तीसरी बड़ी सौन्दर्य प्रतियोगिता है ।  इसका मुख्य कार्यालय मनीला में स्थित है। इसकी स्थापना  2001 में की गई ।  इसी प्रतियोगिता के तहत 2004  में ईको फे्रडली फैशन डिजाइन करने की बात की गई और कई फैशन डिजाइनर इस काम के लिए आगे आए।  इस साल की मिस अर्थ प्रतियोगिता  4 दिसंबर को वियतनाम में आयोजित होगी।  ब्राजील की लैरिसा रैमॉस 2009 की मिस अर्थ हैं। वहीं भारत की निकोल फारिया 2010 की मिस अर्थ चुनी गई। इस साल के लिए मिस अर्थ की प्रतियोगिता 12 नवंबर 2011 को थायलैंड में आयोजित होगी।

गुल दी और उनकी यात्रा

Friday, April 29, 2011

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विश्व नृत्य दिवस पर विशेष
भारतीय संस्कृति और सभ्यता को बेले डांस के जरिये वैश्विक पटल पर स्थापित करने में गुल दी का बहुत बड़ा योगदान रहा है, लेकिन वे अब इस दुनिया में नहीं है. हमारे पास है तो उनके द्वारा स्थापित की गयी बेले नाट्य शैली और उनकी यादें. जब वे थी तो एक बार लम्बी बातचीत करने का मौका मिला. उन्होंने बयां की अपनी संघर्षमय जीवन यात्रा.......
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अंग्रेजी बिन सब अधूरा............

Thursday, April 28, 2011

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कहने के लिए हम भले ही बोले कि हम भारतवासी हैं और हमारी मातृभाषा हिंदी हैं, लेकिन जहां बात सफलता के पायदान छूने की आती है तो अंग्रेजी का ही सहारा लेना पड़ता है। मजबूरी है क्योंकि हिंदी में न ही अच्छी किताबें उपलब्ध हैं और न ही अच्छे शिक्षक। कुल मिलाकर बात अंग्रेजी पर आकर ही टिक जाती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगर अपनी प्रतिभा का परचम लहराना है तो अंग्रेजी सीखना जरूरी है। आज का युवा भी यह बात अच्छी तरह से समझते हैं। इसीलिए तो अंग्रेजी सीखने के लिए और अच्छे संस्थानों के चयन के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। चाहे मैनेजमैंट के क्षेत्र में जाना हो या इंजीनियरिंग के। भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल होने के लिए भी अंग्रेजी से होकर गुजरना होगा।
पिछले साल घोषित हुए संघ लोक सेवा आयोग के परिणामों में भी प्रथम 25 छात्रों की सूची में 21 अंग्रेजी माध्यम से पढ़े प्रतिभागी हैं जबकि हिंदी माध्यम के 4 प्रतिभागी ही टॉप 25 में अपनी जगह बना पाए हैं।
कुछ दिनों पहले ही एक साहित्यिक पत्रिका में डॉ. राम चौधरी का लेख पड़ा। उन्होंने अपने लेख के माध्यम से हिंदी भाषा के प्रति चिन्ता व्यक्त करते हुए लिखा कि अंग्रेजी को हटाना पहाड़ की तरह है। जबकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हमेशा से ही षिक्षा में स्वभाषा को शामिल करने की बात करते रहे। क्या उनकी यह बात साकार रूप ले पाएगी। यह आज भी सवाल बना हुआ है। अंग्रेजी का बाजार दिन प्रतिदिन फैल रहा है। इसको मुठ्ठीभर लोग हिंदी बोलकर नहीं रोक सकते। अगर अंग्रेजी को पछाड़कर हिंदी का व्यापक स्तर पर प्रसार करना है तो हिंदी में अच्छी किताबों से लेकर हर एक प्रकार की उपयोगी जानकारी मातृभाषा में उपलब्ध करानी होगी। 

कहां गई उसे ढ़ूढो

Friday, April 22, 2011

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22 अप्रैल, विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेष  
  शहरों से गौरैया का दूर चले जाना अपने आप में चिन्ता का विषय है। यह समस्या केवल हमारे प्रदेश में या देश की नहीं है, बल्कि समूचे विश्व की है।
घर के आंगन में दानें चुंगती गौरैया आज दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आती है। पक्षी विशेषज्ञों का भी मानना है कि इसकी मुख्य वजह बदलती पर्यावरणीय दशाएं हैं। पक्के मकानों का इतनी तेजी से बनना और फसलों में कीटनाशक दवाओं का अंधाधुंध प्रयोग गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। घरेलू चिड़िया गौरैया की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह मनुष्य के आस-पास ही अपना जीवन बिताती है। दूर जंगल में जाकर बसेरा बनाना उसके स्वभाव में ही शामिल नहीं है। यही वजह है कि पुराने घरों में उसका घोंसला पाया ही जाती था। आज के समय में आदमी वातानकूलित और पक्के मकानों में अपना जीवन निर्वाह कर रहा है। ऐसे घरों में गौरैया के लिए कोई भी जगह नहीं बची है। यह समस्या केवल हमारे देश या प्रदेश की नहीं है, बल्कि समूचे विश्व की है। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ  देहरादून ने घरेलू चिड़िया गौरैया के अचानक कम होने पर एक शोध भी किया गया है। डॉ. ऑलिवर  ऑस्टिन  ने अपनी किताब ‘बर्ड  ऑफ द वर्ल्ड’ में पक्षियों की दशा का जिक्र किया है। जानकारी के अनुसार आज से 2,50,000 वर्ष पहले प्लाइस्टोसीन युग में पक्षियों की 11 हजार 500 प्रजातियां मौजूद थीं, जिनकी संख्या घटकर अब सिर्फ 9 हजार बची है। अंदेशा है कि 600 सालों में 100 विशेष प्रजातियां भी खत्म जाएंगी। वर्तमान समय की बात करें तो 1000 से ज्यादा प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं। उसमें चील और गिद्ध भी शामिल हैं। अपने आस-पास पाए जाने वाले जीवों को खत्म करकर हम किस विकास यात्रा की बात कर रहे हैं,  इसके बारे में हमें सोचना होगा। पक्षी विशेष डॉ. सलीम अली ने पक्षियों और उनके गिरते अस्तित्व को लेकर खूब काम किया है। उन्होंने अपनी किताब ‘एक गौरैया का गिरना’ में गौरैया का बड़े ही संजीदा ढंग से वर्णन किया है। समय पर यदि हम नहीं चेते तो घर के आंगन में आकर अपनी चहचहाहट से नींद से उठाती और भोर की किरण का अहसास कराने वाली गौरैया हमारी आंखों के सामने से ही कब ओझल हो जाए,  हमें पता भी नहीं चलेगा।
 अंकिता मिश्रा