गुल दी और उनकी यात्रा

Friday, April 29, 2011

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विश्व नृत्य दिवस पर विशेष
भारतीय संस्कृति और सभ्यता को बेले डांस के जरिये वैश्विक पटल पर स्थापित करने में गुल दी का बहुत बड़ा योगदान रहा है, लेकिन वे अब इस दुनिया में नहीं है. हमारे पास है तो उनके द्वारा स्थापित की गयी बेले नाट्य शैली और उनकी यादें. जब वे थी तो एक बार लम्बी बातचीत करने का मौका मिला. उन्होंने बयां की अपनी संघर्षमय जीवन यात्रा.......
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अंग्रेजी बिन सब अधूरा............

Thursday, April 28, 2011

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कहने के लिए हम भले ही बोले कि हम भारतवासी हैं और हमारी मातृभाषा हिंदी हैं, लेकिन जहां बात सफलता के पायदान छूने की आती है तो अंग्रेजी का ही सहारा लेना पड़ता है। मजबूरी है क्योंकि हिंदी में न ही अच्छी किताबें उपलब्ध हैं और न ही अच्छे शिक्षक। कुल मिलाकर बात अंग्रेजी पर आकर ही टिक जाती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगर अपनी प्रतिभा का परचम लहराना है तो अंग्रेजी सीखना जरूरी है। आज का युवा भी यह बात अच्छी तरह से समझते हैं। इसीलिए तो अंग्रेजी सीखने के लिए और अच्छे संस्थानों के चयन के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। चाहे मैनेजमैंट के क्षेत्र में जाना हो या इंजीनियरिंग के। भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल होने के लिए भी अंग्रेजी से होकर गुजरना होगा।
पिछले साल घोषित हुए संघ लोक सेवा आयोग के परिणामों में भी प्रथम 25 छात्रों की सूची में 21 अंग्रेजी माध्यम से पढ़े प्रतिभागी हैं जबकि हिंदी माध्यम के 4 प्रतिभागी ही टॉप 25 में अपनी जगह बना पाए हैं।
कुछ दिनों पहले ही एक साहित्यिक पत्रिका में डॉ. राम चौधरी का लेख पड़ा। उन्होंने अपने लेख के माध्यम से हिंदी भाषा के प्रति चिन्ता व्यक्त करते हुए लिखा कि अंग्रेजी को हटाना पहाड़ की तरह है। जबकि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हमेशा से ही षिक्षा में स्वभाषा को शामिल करने की बात करते रहे। क्या उनकी यह बात साकार रूप ले पाएगी। यह आज भी सवाल बना हुआ है। अंग्रेजी का बाजार दिन प्रतिदिन फैल रहा है। इसको मुठ्ठीभर लोग हिंदी बोलकर नहीं रोक सकते। अगर अंग्रेजी को पछाड़कर हिंदी का व्यापक स्तर पर प्रसार करना है तो हिंदी में अच्छी किताबों से लेकर हर एक प्रकार की उपयोगी जानकारी मातृभाषा में उपलब्ध करानी होगी। 

कहां गई उसे ढ़ूढो

Friday, April 22, 2011

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22 अप्रैल, विश्व पृथ्वी दिवस पर विशेष  
  शहरों से गौरैया का दूर चले जाना अपने आप में चिन्ता का विषय है। यह समस्या केवल हमारे प्रदेश में या देश की नहीं है, बल्कि समूचे विश्व की है।
घर के आंगन में दानें चुंगती गौरैया आज दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आती है। पक्षी विशेषज्ञों का भी मानना है कि इसकी मुख्य वजह बदलती पर्यावरणीय दशाएं हैं। पक्के मकानों का इतनी तेजी से बनना और फसलों में कीटनाशक दवाओं का अंधाधुंध प्रयोग गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। घरेलू चिड़िया गौरैया की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह मनुष्य के आस-पास ही अपना जीवन बिताती है। दूर जंगल में जाकर बसेरा बनाना उसके स्वभाव में ही शामिल नहीं है। यही वजह है कि पुराने घरों में उसका घोंसला पाया ही जाती था। आज के समय में आदमी वातानकूलित और पक्के मकानों में अपना जीवन निर्वाह कर रहा है। ऐसे घरों में गौरैया के लिए कोई भी जगह नहीं बची है। यह समस्या केवल हमारे देश या प्रदेश की नहीं है, बल्कि समूचे विश्व की है। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ  देहरादून ने घरेलू चिड़िया गौरैया के अचानक कम होने पर एक शोध भी किया गया है। डॉ. ऑलिवर  ऑस्टिन  ने अपनी किताब ‘बर्ड  ऑफ द वर्ल्ड’ में पक्षियों की दशा का जिक्र किया है। जानकारी के अनुसार आज से 2,50,000 वर्ष पहले प्लाइस्टोसीन युग में पक्षियों की 11 हजार 500 प्रजातियां मौजूद थीं, जिनकी संख्या घटकर अब सिर्फ 9 हजार बची है। अंदेशा है कि 600 सालों में 100 विशेष प्रजातियां भी खत्म जाएंगी। वर्तमान समय की बात करें तो 1000 से ज्यादा प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं। उसमें चील और गिद्ध भी शामिल हैं। अपने आस-पास पाए जाने वाले जीवों को खत्म करकर हम किस विकास यात्रा की बात कर रहे हैं,  इसके बारे में हमें सोचना होगा। पक्षी विशेष डॉ. सलीम अली ने पक्षियों और उनके गिरते अस्तित्व को लेकर खूब काम किया है। उन्होंने अपनी किताब ‘एक गौरैया का गिरना’ में गौरैया का बड़े ही संजीदा ढंग से वर्णन किया है। समय पर यदि हम नहीं चेते तो घर के आंगन में आकर अपनी चहचहाहट से नींद से उठाती और भोर की किरण का अहसास कराने वाली गौरैया हमारी आंखों के सामने से ही कब ओझल हो जाए,  हमें पता भी नहीं चलेगा।
 अंकिता मिश्रा