ऐतिहासिक धरोहर मुगलकालीन स्वर्ण मुद्राएं

Monday, October 7, 2013

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अंकिता मिश्रा, भोपाल।

वन और खनिज संपदा से परिपूर्ण प्रदेश  को देशभर में जैव विविधता के लिए भी जाना जाता है। इतना ही नहीं ऐतिहासिक धरोहरों और संस्कृतियों के लिए भी यह पहचाना जाता है। पिछले साल प्रदेश  के बुरहानपुर जिले से प्राप्त हुईं 482 स्वर्ण मुद्राएं इसका ताजा उदाहरण हैं। पुरातत्व विशेषज्ञों ने अपने परीक्षणों और विश्लेषण  के आधार पर इन मुद्राओं को मुगलकालीन सल्तनत का बताया है। इन स्वर्ण मुद्राओं पर शासक का नाम और वर्ष बाकायदे सुनहरे अक्षरों में उकेरे गए हैं। प्रदेश की खनिज संपदा और धरोहर से लोगों को परिचित कराने के लिए प्रदेश सरकार ने भोपाल स्थित राज्य संग्रहालय में मुद्राओं की प्रदर्शनी भी लगवाई। इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचे और उन्होंने मुगलकालीन मुद्राओं को बारीकी से देखा और मुद्रा के इतिहास से जुड़े पहलुओं को भी जाना।


सबसे अधिक मद्राएं औरंगजेब की-
इन मुद्राओं की सबसे खास बात यह है कि इन्हें देखने पर समयकालीन परंपरा और कला के दर्शन होते हैं। प्रदर्शित में जितनी भी स्वर्ण मुद्राएं प्रस्तुत की गईं वे जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब के काल की हैं। प्राप्त 482 मुद्राओं में 430 सिक्के सिर्फ औरंगजेब के शासनकाल के हैं। औरंगजेंब के शासनकाल की 430 मुद्राओं में अहमदनगर की 3, अकबराबाद की 3, औरंगाबाद की 115, बुरहानपुर की 39, इलाहाबाद की 9, जाफराबाद की 6, गोलकुंडा की 9, खम्बात की 31, काबुल की 2, मुलतान की 9, पटना की 2, सोलापुर की 35 और सूरत से जारी 216 टकसालें शामिल हैं।
सबसे कम संख्या जहांगीर के काल के सिक्कों की हैं। इनकी संख्या मात्र 4 हैं,  वहीं शाहजहां के समय के समय के सिक्के 33 हैं। इसमें से 3 मुद्राएं अहमदाबाद की, इलाहाबाद की 9, बुरहानुपर की 4 मुद्राएं, दौलताबाद की और मुलतान से जारी की गई 4 टकसालें शामिल हैं। जहांगीर का शासनकाल 1605-1627 ई. तक रहा। शाहजहां ने 1628 से 1658 तक शासन किया, वहीं औरंगजेब ने 1658 से 1707 तक सल्तनत संभाली।
इससे पहले भी इस तरह की स्वर्ण मुद्राएं खुदाई में मिली चुकी हैं। 1953 के सबसे बड़ा दफीना बयाना, राजस्थान से गुप्तकालीन स्वर्ण मदुाएं मिली। इसके बाद सबसे बड़ा दफीना मप्र के जिले बुरहानपुर में मिला, जो अपने आप में एक बड़ा उदाहरण है। 467 मुगलकालीन स्वर्ण मुद्राओं का इतना बड़ा संग्रह अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है।


खुदाई में मिला खजाना-
बुरहानपुर शहर के सिकारपुरा  क्षेत्र की निवासी सविता रानी और उनके पति मुकेश  को घर में खुदाई के दौरान 2003 में ये स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुईं। जब उनको कलश  में भरी हुईं ये मद्राएं मिली तो सब भूले गए। उन्हें समझ ही नहीं आया कि प्राप्त सिक्कों का क्या करें। कुछ दिनों तक उन्होंने इस बात की किसी को काई खबर नहीं दी, लेकिन गुजरात के जूनागढ़ निवासी अपनी पुत्री-दामाद को इसके बारे में बताया। उन्होंने सिक्कों को अपने बेटी-दामाद के पास भेज दिया। दामाद ने अपने मित्र को यह बात बताई। स्वर्ण मुद्राओं को कैसे और किस रूप में अपने पास संरक्षित किया जा सकता है। इस समय इसकी बाजार में कीमत क्या है। इन सभी पहलुओं पर विचार विमर्श  के बाद यह तय हुआ कि सिक्कों को गलाकर रॉड  तैयार की जाए। कुछ सिक्कों को उन्होंने गलाया भी। इसी बीच दोनों दोस्तों में मतभेद हो गया। दूसरे मित्र ने कहा कि आधा हिस्सा इसमें से दो, वराना पुलिस को बता देंगे। दोस्त की यह बात सुनकर सविता के दामाद ने स्वयं पुलिस को खजाने के बारे में बताया। पुलिस ने मुद्राएं अपने कब्जे में कर लीं और सरकार ने जांच पड़ताल के बाद तय कि इसे शासकीय खजाने में डाल दिया जाए। गुजरात सरकार के हाथों में प्रदेश से प्राप्त हुई ऐतिहासिक धरोहर चली गई। यह बात सुनकर सविता रानी ने तय किया कि मुद्राएं प्रदेश  में प्राप्त हुईं हैं, इसलिए ये प्रदेश की ही धरोहर हैं। यह बात मप्र शासन को भी पता चली। सिक्कों की खोजबीन की गई। आखिरकार 6 अगस्त 2007 को मध्य प्रदेश की निधि होने का आदेश एम.ए.जी./सी 3940/2006 आदेश पारित किया। इसके बाद पुरातत्व आयुक्त ने एक टीम गठित करके गुजरात राज्य से सिक्कों को प्रदेश में लाने की तैयारी शुरू की। इसके बाद 23 फरवरी 2010 को स्वर्ण मुद्राएं प्रदेश शासन को मिली, जिन्हें प्रदेश के राज्य संग्रहालय में 24 फरवरी 2010 को सौंपा गया।

गो फॉर स्लिम

Friday, August 9, 2013

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यदि आप मोटापे की ओर बढ़ रहे हैं और पतले होने की कोई युक्ति नहीं सूझ रही है, तो नए साल के आगमन पर आप ये पंद्रह सकल्प ले सकते हैं कि फूड मीनू में ये फूड शामिल करेंगे और अपना रुटीन हेल्थ चैकअप भी स्वयं करेंगे।

अंडा-
फुल प्रोटीन से परिपूर्ण अंडा को यदि आप अपने फूड मीनू में शामिल करेंगे तो निश्चित ही अपनी सेहत को अच्छा रख सकेंगे, लेकिन इतना याद रखें कि हाई कैलोरी ब्रेड के साथ इसका सेवन न करें। नाश्ते में दो ब्रेड के साथ आमलेट लें।
बीन-
प्रोटीन और कोलियोस्टोनिन से पूरिपूर्ण बीन आपके स्वास्थ्य के लिहाज से बेहतर रहेगी। इसमें पाया जाने वाला कोलियोस्टोनिन तत्व आपको स्लिम और ट्रिम बनाए रखेगा। इसके सेवन से डायजेस्टिव हार्मोन सक्रिय रहता है जो आपके मोटापे को कंट्रोल करता है। रिसर्च के जरिए यह सिद्ध हो चुका है कि यदि आप दिन में दो बार बीन का सेवन करते हैं तो आप स्लिम और ट्रिम रह सकते हैं। यह आपके पेट को भी बाहर निकलने से रोकता है। इतना ही नहीं यह आपके कोलेस्ट्रॉल को भी कन्ट्रोल करती है।
सलाद-
सलाद तो मोटापे को कम करने की सबसे कारगर युक्ति है। सलाद को खाने से एक तो आप हाई कैलोरी के इनटेक से बचते हैं और आपकी भूख भी शांत हो जाती है। रिसर्च के जरिए पता चला है कि जो लोग विटामिन सी, ई, फोलिक एसिड और कैरोटिनॉइड्स से परिपूर्ण सलाद का सेवन करते हैं, उन्हें मोटापे की समस्या नहीं होती है। अपने डेली मीनू में सभी तरह के सलाद को प्रायिकता के साथ शामिल करें।
ग्रीन टी-
वाकई आप मोटापे से छुटकारा पाना चाहते हैं, तो आप टी के बजाय ग्रीन टी का सेवन करें। दिन में दो बार यदि ग्रीन टी लेते हैं, तो सच मानिए आपका मोटापा तो छूमंतर हो जाएगा। मोटापे के साथ-साथ यह बेकार कोलेस्टॉल को भी कम करता है।
पियर्स-
पियर्स यानि नाशपाती तो सभी खाते हैं, लेकिन इसके फायदे से कम ही वाकिफ हैं। यदि आप नाशपाती का सेवन करते हैं, तो मोटापे को बाय कह सकते हैं। एक मीडियम साइज की नाशपाती आपको पतला बना सकती है। आपने शायद यह सोचा भी नहीं होगा। प्रोटीन फाइबर से परिपूर्ण नाशपाती ब्लड में शुगर लेवल भी कम करती है, लेकिन इतना ध्यान रखें कि कुछ खाने के बाद और भोजन करने के बाद इसको न खाएं। ब्राजील में हुई रिसर्च में यह सामने आया है कि 12 सप्ताह तक लगातार इसका सेवन करने से महिलाओं के वजन में कमी आई है।
सूप-
यदि आप नॉन वेज लेते हैं, तो इसकी बजाय इसके बने सूप का इस्तेमाल करें। आप सीधे चिकन न खाकर इसका सूप पिएं। पाडर््ू यूनिवर्सिटी में हुए अध्ययन में यह सामने आया है कि जिन्होंने भूख को मिटाने के लिए सीधे नॉनवेज न लेकर उससे बने सूप का इस्तेमाल किया तो उनके वजन में गिरावट आई।
नो चर्बी-
यदि आप मांस खाने के आदी हैं, तो चर्बी वाला मांस न लें। चर्बी वाले हिस्से को पहले ही निकाल दें। ऐसा करके आप न सिर्फ अपना मोटापा कंट्रोल कर सकेंगे बल्कि अन्य बीमारियों से भी छुटकारा पा सकेंगे।
आलिव आयल-
सर्दी में कारगर दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला आलिव आयल आपको पतला बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आस्ट्रेलियन स्टडी के जरिए यह पता चला कि जिन महिलाओं को महावारी आना बंद हो चुकी थी, जब उन्हें आलिव आयल से तैयार ब्रेकफास्ट और स्किम मिल्क दिया गया तो उनकी मेटापे में गिरावट आई, लेकिन आलिव आयल को ओटमील के साथ कभी नहीं लेना चाहिए।
ग्रेप फूड-
रिसर्च के जरिए यह पता चला है कि दिन में तीन बार जूस लेने और खाना खाने के पहले एक बार ग्रेप फूड का इस्तेमाल करने वाले लोगों में मोटापे की समस्या कम देखी गई। इसमें पाए जाने वाले पॉलिकेमिकल्स इंसूलिन लेवल को कम करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि आपकी बॉडी में मौजूद कैलोरी तेजी से ऊर्जा में बदलती है।
दालचीनी-
दालचीनी भी मोटापे को कंट्रोल करती है। खाने से पहले लगने वाली तेज भूख को भी नियंत्रित करती है। ऐसा होने से आप अधिक खाने से बच जाते हैं। यदि आप दिन में आधा चम्मच दालचीनी पावडर का इस्तेमाल करते हैं, तो ब्लड शुगर, कॉलेस्ट्रॉल और ट्राईग्लिसराइड के स्तर को कंट्रोल कर सकते हैं।

बेटियों से हरा हुआ गांव

Thursday, July 25, 2013

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गोहद से लौटकर अंकिता मिश्रा।

देश में जहां बेटियों पर हो रहे अत्याचार के विरोध में स्वर तेज हो रहे हैं। वहीं भिंड जिला के ब्लाॅक गोहद के सेंघवारी गांव के लोगों ने बेटियों के हक में अपने हाथ पहले ही उठा लिए थे। बेटी के पैदा होते ही, उसके नाम के पांच पेड़ गांव में लगाए जाते हैं। ऐसा करके लोग बेटी को बचाने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण में भी बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं। प्रदेश में चल रही ‘बेटी बचाओ योजना’  तो एक साल पहले ही शुरू की गई है, लेकिन बेटियों के हित में गांव के लोग बहुत पहले ही चेत गए थे। लोगों को लड़कियों के जनम और उनके संरक्षण के प्रति प्रेरित किया यहां के नाट्य समूह ‘‘बांधो मुट्ठी बहना‘‘ ने।


इस जिले में मध्य प्रदेश के अन्य जिलों के मुकाबले लिंगानुपात बेहद कम है। वर्ष 2011 की जनगणना में जारी किए आंकड़ों पर नजर डालते हैं, तो स्पष्ट  नजर आता है कि वर्ष 1991 से लेकर 2011 के बीच शिशु लिंगानुपात में मप्र में भारी गिरावट आई है। 1991 में प्रति हजार लड़कों पर जहां 941 लड़कियां थी, अब उनकी संख्याग महज 912 बची है। भिंड जिले में शिशु लिंगानुपात सबसे कम और चौंकाने वाला है। प्रति हजार लड़कों पर सिर्फ 835 ही लड़कियां हैं। 2001 में यह आंकड़ा 832 था जिसमें कि मामूली बढ़ोत्तजरी हुई है। यह हर्ष की बात है। इसके पीछे सामाजिक चेतना और सरकारी सख्तीं क यह हमारे लिए चिन्ता  का विषय है। शिशु लिंगानुपात के मामले में मप्र के भिण्डब जिले के ब्लॉीक गोहद के सेंघवारी गांव में लड़कियों की संख्या एक समय में लड़के मुकाबले बेहद कम हो गई थी। यहां पर शिशु लिंगानुपात 800 से भी नीचे पहुंच गया था। इसकी मुख्य वजह बेटियों को पैदा होने से पहले या पैदा होने के बाद मार देना ही था। इसके पीछे की मुख्य लोग बेटियों की शादी में लगने वाला भारी-भरकम दहेज मानते हैं। यही कारण है कि घर में बेटी के जनम को लोग नासूर की तरह समझते थे, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। बेटियों को लोग घर की हरियाली और खुशी मानने लगे हैं और  गांव में बेटी के नाम पर पांच पेड़ लगाने की परंपरा चल पड़ी है।
गांव के लोगों की इस अभिनवव पहल को ध्यान में रखते हुए महिला एवं बाल विकास विभाग, ग्वालियर एवं चंबल संभाग भी जाग गया है। यही कारण है कि विभाग ने भिंड, मुरैना जिले में ऐसे 25 से अधिक गांवों की सूची तैयार की है, जहां बेटी के नाम पर पेड़ लगाए जाएंगे। जिले में ऐसे ही गांवों को आगे किया जाएगा जहां पर बेटियों की संख्या कम है और जहां रूढि़वादी परंपराओं के चलते परिवार में उचित सम्मान नहीं मिलता है।

बनाई नुक्कड नाटक मंडली-
गांव की बोली-भाषा में तैयार किए गए नुक्कड़ नाटक का असर लोगों पर अन्य संचार माध्यामों के मुकाबले अधिक होता है। यही वजह है कि महिला एवं बाल विकास विभाग ने इस मुहिम को गति देने के लिए चार नुक्कड़ नाटक मंडली भी तैयार की हैं जो गांव-गांव जाकर नुक्कड़ नाटक के माध्यम से बेटी बचाओ का संदेश देगी। नुक्कड़ नाटक के माध्यम से कन्या भू्रण हत्या, जन्म के समय मार देना, लड़के-लड़की में भेद-भाव, बालिका शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े विषय भी शामिल होंगे।

नहीं मरेंगी बेटियां-
भिंड जिले में पिछले दो सालों से सक्रिय नुक्कड़ नाटक मंडली बांधो मुट्ठी बहना ने इस बात का प्रण किया है कि अब यहां बेटियां नहीं मारी जाएंगी। उन्हें भी जीने का हक मिलेगा। इसके बारे में नाटक मंडली की प्रमुख गीता सिसोदिया बताती हैं कि अपने आस-पास के माहौल में उन्होंने लड़कियों की दुर्दशा को देखा है। पहली बात तो उन्हें जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है, यदि जन्म ले भी लेती हैं तो फिर लोग उन्हें मार देते हैं। यदि किसी तरह जीवन के आगे के सफर को तय करती हैं, तो उन्हें घर में प्यार और सम्मान नहीं मिलता। पति और परिवार के तमाम विरोध करने के बावजूद उन्होंने किसी की नहीं सुनी। समाज में बेटियों को बराबर का हक मिले, उन्हें कोई मारे नहीं। इसको लेकर उन्होंने दस महिला सदस्यों की नुक्कड़ नाटक मंडली बनाई और गांव-गांव जाकर बेटी बचाओ की मुहिम को आगे बढ़ाने में लग गईं। गीता का कहना है कि लाख रूकावटंे आने के बावजूद भी वह अपनी मुहिम को विराम तब तक नहीं देंगी, जब तक कि जिले के हर गांव में बच्चियों को बराबर हक और सम्मान नहीं मिल जाता है।

नातिन के नाम पर लगाए पेड़-

सेंघवारी गांव के सरपंच पूरन सिंह बताते हैं कि पहले इस गांव में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या कम थी। लोग भी लड़की पैदा होने पर मां को ही बुरा-भला कहते थे, लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं है। गांव के कुछ लोग जागरूक हुए और उन्होंने बेटी के नाम पर पेड़ लगाने की परंपरा शुरू की है। इसका नतीजा यह हुआ है कि गांव तो हरा-भरा दिखता ही है, साथ ही बेटियों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है। गांव के बुजुर्ग शिवसिंह ने गांव में पेड़ लगाने की परंपरा शुरू की थी। उन्होंने अपनी बेटी प्रीति के नाम पर 15 साल पहले पांच पेड़ लगाए थे जो आज बड़े होकर गांवभर के लोगों को हवा और छाया दे रहे हैं। पेड़ लगाने की परंपरा को कायम रखते हुए उन्होंने अपनी नातिन रोशनी के नाम पर भी पांच पेड़ लगाए हैं। उनके इस काम को देखते हुए गांव के अन्य लोग भी इस पहल को आगे बढ़ा रहे हैं।

जारी रहेगी मुहिम- 
शुरू हुई ये मुहिम बंद नहीं होगी, बल्कि अनवरत जारी रहेगी। बिटिया के संरक्षण के लिए महिला एवं बाल विकास पूरी सक्रियता के साथ पहल को आगे बढ़ा रहा है। विभाग के ग्वालियर एवं चंबल संभाग के संयुक्त संचालक सुरेश तोमर बताते हैं कि ऐसे गांवों को सूचीबद्ध किया जा रहा है, जहां लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या कम है। इतना ही नहीं लड़कियों को मारने के लिए तरह के कृत्य भी लोगों द्वारा किए जा रहे हैं। जन जागृति के लिए ऐसे गांवों में नुक्कड़ नाटक किए जाएंगे। लोगों को जागरूक किया जाएगा। उनकी सहमति हर एक लड़की के नाम से पेड़ भी लगाया जाएगा। बेटी के नाम पर जो लोग पेड़ लगाएंगे उनका भावात्मक लगाव भी बढ़ेगा, जिससे पेड़ की देख-रेख ठीक ढंग से होगी, साथ ही बच्ची की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई पर भी विशेष ध्यान देने के लिए उन्हें प्रेरणा मिलेगी। इतना ही नहीं संबंधित जिले के जनप्रतिनिधि स्वयं अपने क्षेत्र में जाकर लोगों को बिटिया बचाओ अभियान से जोड़ेंगे।

पर्दे पर छाया मध्य प्रदेश

Sunday, July 21, 2013

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छोटे पर्दे से लेकर बड़े पर्दे पर बालीवुड में मध्य प्रदेश वासियों ने अपनी अलग छाप छोड़ी है। फिल्म इंडस्ट्री में जया बच्चन, रजा मुराद, जीनत अमान से लेकर शरद सक्सेना ऐसे नाम हैं, जिन्होंने अपने सषक्त अभिनय और अथक मेहनत से नाम के साथ-साथ सिनेमा में गहरी पैठ बनायी है। सभी का प्रदेश से गहरा रिश्ता  रहा है। यह सिलसिला अभी थमा नहीं है, बल्कि अनवरत जारी है। मुंबई पहुंचने वाले कलाकारों, अभिनेताओं की सूची दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। प्रदेष से बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली कलाकार निकलकर मुंबई नगरी में उपस्थिति दर्ज करा रहे है। कोई पर्दे के सामने रहकर अपने अभिनय और अपने कार्यों से प्रदेशवासियों को गौरवांन्वित करा रहा है, तो कोई पर्दे के पीछे पसीना बहाकर दिनरात एक करके बुलंदियों पर पहुंचने के लड़ रहा है। 


मेहनत तो कलाकार ही करता है, लेकिन नाम तो प्रदेश और शहर का ही होता है। मुकेश तिवारी, आशुतोष राणा, और शाहवर अली ऐसे नाम हैं, जिन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में अपनी मेहनत और लगन से प्रदेश  को नई पहचान दी है। नब्बे के दशक के बाद से मुंबई और सिनेमा की ओर रुख करने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। सत्तर और अस्सी के दशक में मुंबईया सिनेमा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी जया बच्चन हो या फिर रजा मुराद सभी ने अपने अभिनय से लोगों के दिल को जीता और प्रदेशवासियों को विश्वास दिलाया कि उनके अन्दर भी दम है और कुछ कर दिखाने का जज्बा कायम है। अच्छी फिल्म पटकथाओं के लिए जानी वाली सलीम और जावेद की जोड़ी को बनाने वाला भी मध्य प्रदेश  ही है। इंदौर की धरा में पले-बढ़े सलीम और भोपाल की आवो-हवा में घुले मिले जावेद अख्तर की कलम की ही सशक्त कलम का ताकत सुपरहिट शोले फिल्म है, जिसने उस समय हैट्रिक देकर अमिताभ और धर्मेन्द्र की जोड़ी को नई पहचान दी थी। आज के समय की बात करें तो आज भी मध्य प्रदेश  हिन्दी सिनेमा में राज कर रहा है।  सलमान खान की फिल्म ‘‘एक था टाइगर‘‘ ने सभी रिकार्ड को तोड़ते हुए सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म का रिकार्ड अपने नाम किया है। सलमान भी इंदौर की धरा पर जन्में हैं। उनके दोनों भाई अरबाज और सोहेल खान भी यही पैदा हुई हैं। फलती-फूलती जमीं ने कलाकारों को तो बुलंदी पर पहुंचाया ही है, साथ ही हम प्रदेशवासियों  का सिर भी गर्व से ऊंचा किया है।
अभिनय के क्षेत्र में ही नहीं संगीत और गायन के क्षेत्र में प्रदेश के कलाकारों ने कीर्तिमान रचे हैं। स्वर कोकिला लता मंगेश्कर व आशा  भोसले भी इंदौर में जन्मी हैं। वहीं सदाबहार गीतों और अभिनय के लिए जाने वाले अशोक  व किशोर दा भी खंडवा की जमीं पर पैदा हुए। इतना ही नहीं सागर के रहने वाले विट्ठल भाई पटेल ने फिल्म ‘‘बाॅबी‘‘ में बेहतरीन गीत लिखकर ऋषि कपूर और नीतू सिंह की जोड़ी को उस समय युवाओं की सबसे पसंदीदा जोडि़यों में से एक बना दिया था। नबाव पटौदी का लिंक भोपाल शहर से होने के कारण शहर खेल के साथ-साथ सिनेमा के क्षेत्र में भी बुलंदियों पर छाया रहा। शर्मिला टैगोर, सोहा अली खान और सैफ अली खान आज भी शहर में आते हैं और शहरवासियों को इस बात का अहसास कराते हैं कि भोपाल हमेशा की तरह फिल्मी दुनिया में अपनी गरिमामय उपस्थिति बनाए रखेगा। नई प्रतिभाएं पैदा करने में भी शहर महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहा है।

पर्दे के पीछे-
पर्दे के पीछे भी प्रदेश व शहर  का बड़ा जनसमूह काम कर रहा है, जिसमें निर्देशक, एडीटर, संगीतकार, गीतकार और तकनीकि विशेषज्ञ शामिल हैं। भोपाल में लंबे समय तक रहे फिल्म निर्देशक रोमी जाफरी का भी शहर से लगाव अभी कम नहीं हुआ है। यही वजह है कि उन्होंने पिछले साल यहां पर फिल्म ‘‘गली-गली में चोर है‘‘ की शूटिंग की, हालांकि फिल्म को बाॅक्स आॅफिस पर सफलता नहीं मिली, लेकिन फिल्मकार द्वारा अपने शहर को ध्यान में रखते हुए फिल्म निर्माण करना कोई छोटी बात नहीं है। मुंबई की चमक-दमक को छोड़ निर्देशक  और प्रोड्यूसर थ्री टायर सिटी की ओर रुख कर रहे हैं। यह हमारे लिए हर्ष की बात है। शहर से निकले कलाकारों और निर्देशकों की पहल पर बड़े कलाकार और निर्देशकों ने भी यहां आकर फिल्म निर्माण किया है। इसमें मेगा बजट की फिल्में जैसे-राजनीति, आरक्षण और चक्रव्यूह शामिल हैं। इसके अलावा छोटे औसत बजट की फिल्म पीपली लाइव की शूटिंग भी भोपाल के पास के गांव में ही की गई। राख और बटर फ्लाई जैसी छोटी फिल्में भी हैं, जिनकी शूटिंग भोपाल शहर व आस-पास के क्षेत्रों में हुई हैं। फिल्मकार इतनी बड़ी संख्या में फिल्म बनाने के लिए अग्रसर हो रहे हैं। इसका कारण यहां मिलने वाली सुविधाएं और प्रतिभाशाली कलाकार हैं। ऐसा होने से स्थानीय कलाकारों को मंच तो मिला ही है; साथ ही उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में भी सुधार आया है।

बनाई जगह-
प्रदेश के कलाकारों ने बॉलीवुड  में अपनी खास पहचान बनाई है। चाहे निर्देशक  हो या फिर कलाकार, सभी में अद्वितीय प्रतिभा है। जाने-माने निर्देशक  सुधीर मिश्रा प्रदेश के सागर जिले से हैं, जिन्होंने धारावी, खोया-खोया चांद जैसी  मशहूर फिल्में बनाई। सिनेमा की गहराई को समझने वाले सुधीर की पहचान एक मझे हुए फिल्म निर्देशक  रूप में इंडस्ट्री में होती है। सागर यूनीवर्सिटी से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सुधीर ने फिल्म इंडस्ट्री की ओर रुख 60 के दशक में किया, तब उन्हें शायद इस बात का भान भी नहीं था कि आगे चलकर वे इतने अच्छे निर्देशक  बनेंगे। फिल्म से जुड़ी किसी भी प्रकार की पढ़ाई उन्होंने नहीं की, लेकिन फिल्म संस्थान में पढ़ने वालों से लगातार कुछ न कुछ सीखते रहे। उनकी सीखने की आदत का ही नतीजा है कि आज वे जहां हैं, वहां पहुंचना हर किसी के बस का काम नहीं हैं। यह बात उन्होंने स्वयं एक इंटरव्यू के दौरान कही। गंभीर निर्देशकों में गिने जाने वाले सुधीर की पसंदीदा अभिनेत्रियों की बात करें तो चित्रांगदा ही उनकी फेवरेट अभिनेत्री हैं, जो गुण उन्हें उनके अंदर नजर आते हैं, वैसे किसी में नहीं दिखते। वैसे चित्रांगदा ने भी फिल्म ‘‘देसी ब्याॅज‘‘ से अपनी धमाकेदार वापिसी करके अपने प्रशंसकों को खुश कर दिया है। फिल्म ‘‘जोकर‘‘ में उन्होंने आयटम सांग किया है। जब मध्य प्रदेश की बात निर्देशक के योगदान के संदर्भ में की जा रही है तो प्रदेश  के प्रमुख शहर ग्वालियर को छोड़ा नहीं जा सकता है। गीतकार जावेद अख्तर ने अपना बचपन इसी शहर में गुजारा है। भोपाल से उन्होंने अपनी स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की। इसके अलावा प्रदेष से कई प्रतिभाएं निकली हैं जिन्होंने बॉलीवुड  में अपना योगदान देकर सिर्फ प्रदेश का मान ही नहीं बढ़ाया है, बल्कि देश  का भी सिर ऊंचा किया है। इसमें कवि प्रदीप, सदानन्द किरकिरे और राहत इंदौरी व निदा फाजली जैसे नाम शामिल हैं। 

डरिए नहीं लड़िए

Saturday, July 6, 2013

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डॉक्टर्स डे 7 जुलाई -
छोटे से लेकर बड़े तक कैंसर की चपेट में आ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह अनियंत्रित जीवनशैली, पारिवारिक हिस्ट्री, बदलती पर्यावरणीय समस्याएं, उत्परिवर्तन, खान-पान और तनाव को बताया जा रहा है। कैंसर को पैदा करने में रेडिएशन, धूम्रपान, तंबाकू का सेवन भी प्रमुख हैं। कैंसर को जड़ से खत्म करने के लिए अभी तक ऐसी कोई कारगर युक्ति नहीं आ सकी है। इसकी मुख्य वजह कोशिकाओं की अनियंत्रित ग्रोथ है। यदि सर्जरी या सिकाई के जरिए कोशिकाओं को काटकर या सिकाई के जरिए नष्ट कर भी दिया जाता है, लेकिन यदि उसका थोड़ा सा भी अंश शेष रह गया तो फिर से कोशिकाओं की ग्रोथ तेजी से होने लगती है जो गांठ या गुच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाती है। कोशिकाओं की अनावश्यक ग्रोथ शरीर की अन्य क्रियाओं में बाधक बनती है और अन्य रोगों को भी जन्म देती है। ऐसा होने से व्यक्ति की पूरी शारीरिक क्रिया ही प्रभावित हो जाती है। इसका असर यह होता है कि व्यक्ति असमय ही काल के मुंह में समा जाता है। हालांकि आज के समय में ऐसी कारगर युक्तियां आ गई हैं, यदि समय रहते उपचार कर लिया जाए तो कैंसर को भी दूर किया जा सकता है और स्वस्थ्य जीवन का आनन्द लिया जा सकता है।


यूं करें कैंसर की पहचान-
कैंसर रिसर्च यूके के मुताबिक कैंसर की पहचान के दौ सौ से अधिक लक्षण होते हैं, लेकिन कुछ लक्षणों को ध्यान में रखकर यदि शुरुआती दिनों में ही जांच कराई जाए तो कैंसर को पूर्णत: ठीक किया जा सकता है।
  • शरीर में यदि आपको कहीं गठान होने का अहसास हो।
  •  इन लक्षणों में पेशाब में आने वाले खून और खून की कमी की बीमारी अनीमिया शामिल है।
  •  पखाने में आनेवाला खून, खांसी के दौरान खून का आना, स्तन में गांठ, कुछ निगलने में दिक्कत होना, मीनोपॉस के बाद खून आना और प्रोस्टेट के परीक्षण के असामान्य परिणाम।


तंबाकू और गुटखा घातक-
आज हमें तरह-तरह के कैंसर के बारे सुनने को मिल रहा है। इसके बावजूद भी तंबाकू और गुटखे से होने वाला मुंह का कैंसर अभी भी अन्य कैंसर के मामले में पहले पायदान पर है। देश की स्थिति के बारे में यदि बात करें तो गांव-कस्बों की 4.2 फीसदी महिलाएं भी बीड़ी, हुक्का और गुटखा के चंगुल में है। ऐसी ही स्थिति शहरों की है। ग्लोबल युवा सर्वे के अनुसार 2008-09 में बिहार में 71.8 फीसदी युवा तम्बाकू का सेवन करते थे। इनमे 48 फीसदी 10 साल से कम उम्र वाले बच्चे शामिल है। तम्बाकू का सेवन करने वाले 58.9 फीसदी युवाओं में 61.4 फीसदी लोगों में 51.6 फीसदी लड़के व 49.2 फीसदी लड़कियां है। सिगरेट पीने वाले 19.4 फीसदी लोगों में 23.0 फीसदी लड़के व 7.8 फीसदी लड़कियां हैं। ये सभी तथ्य चौंकाने वाले हैं। नई रिसर्च के जरिए यह भी पता चला है कि यदि लोग तंबाकू और धूम्रपान छोड़ने का मन बनाते हैं तो सम्पन्न व्यक्ति तो छोड़ने के लिए जल्दी राजी हो जाते हैं, लेकिन गरीब और मिडिल क्लास के व्यक्ति इसे छोड़पाने में असमर्थता जताते हैं।
प्रत्येक वर्ष धूम्रपान करने से 70 हजार भारतीय मौत के गाल में समा जा रहे है। प्रत्येक दिन 2200 मौते तम्बाकू संबंधी रोगों से हो रही है। अगर इसपर नियंत्रण नहीं तो 2020 आते-आते 13 प्रतिशत मौते तम्बाकू के कारण होगी। तम्बाकू के सेवन से हर साल 50 लाख लोगों की मृत्यु होती है। सबसे ज्यादा मुहं का कैंसर 20 से 40 वर्ष की उम्र वालों में होता है। सब-न्यूकस हाईब्रोसिस 15 से 20 आयु वर्ग वाले युवकों में होता है। इसमे गुटका का सेवन करने वालों का मुहं छोटा हो जाता है। जिसके कारण उन्हें सांस लेने में भी परेशानी होती है। जो तम्बाकू का सेवन करते है। उनकी आॅक्सीजन लेने की क्षमता दिन-प्रतिदिन कम होती जाती है। हमारे संस्थान में बहुत कम उम्र वाले बच्चे भी इलाज के लिए आ रहे हैं। सिगरेट से पांच गुणा खतरनाक खैनी का सेवन है। शहरों में तो खैनी का सेवन धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है लेकिन गांव में इसका प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। तम्बाकू से होने वाली बीमारियों के बारे में ग्रामीण इलाकों में लोगों को ठीक से पता तक नहीं है।  

धूम्रपान से होने वाले कैंसर-
लंग कैंसर
ग्रासनली का कैंसर
गुर्दे का कैंसर
स्तन कैंसर (महिलाओं में)
लैरिंग्स (कंठ)कैंसर
उदर, अग्नाशय का कैंसर

सर्वाइकल कैंसर-
महिलाओं में होने वाला सबसे आम कैंसर है। हालांकि इसकी कारगर ‘एचपीवी वैक्सीन’ आ चुकी है। यदि इसे समय पर लगवा दिया जाए तो सर्वाइकल कैंसर होने का खतरा कम हो जाता है। इस कैंसर को अंजाम देने वाला ह्यूमन पेपिलोमा वायरस सेक्सुअली ट्रांसमिशन से एक से दूसरे में पहुंचता है। साफ-सफाई का ध्यान रखना और एतिहात बरतने पर इसे होने से रोका जा सकता है। जानकारी के मुताबिक 2008 में विकासशील देशों में 85 फीसदी महिलाओं में इसके नए केसेज दर्ज किए गए थे।
ब्रेस्ट कैंसर-
महिलाओं में सबसे आम कैंसर ब्रेस्ट कैंसर यानि स्तन कैंसर है। इसके पीछे बदलती जीवनशैली और लेट मेरिज है। देर से बच्चा पैदा करने की टेंडेंसी आजकल देखी जा रही है, यह भी इस कैंसर को जन्म देने में महत्वपूर्ण कारक है। इससे बचने का एक ही रास्ता है कि तनाव, खान-पान और जीवनशैली को नियंत्रित किया जाए। साथ ही समय-समय पर स्तनों की मेमोग्राफी कराते रहें। किसी भी प्रकार की शंका होने पर तुरंत जांच कराएं। आजकल तो जांच के लिए   नई-नई और कारगर तकनीकें आ गई हैं।

ये हैं जांच की तकनीकि-
रेडियो इमेजिंग- इससे यह पता चल जाता है कि कैंसर कितना फैल चुका है, कौन सी स्टेज में है। इलाज के लिहाज से इसे काफी कारगर माना जाता है।
मेमोग्राफी- स्तन कैंसर के मामले में सबसे कारगर
कीमोग्राफी- तेजी से ग्रोथ करने वाली अनावश्यक कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए उपयोग में लाई जाती है।
ट्यूमर मार्कर- ट्यूमर की ग्रोथ पता चलती है।
पीईटी (पॉजीट्रॉन इमीशन टोमोग्राफी)- इसके जरिए थ्री डायमेंशल इमेंज मिल जाती है संबंधित स्थान की।

मप्र में उपचार-
मप्र में भी कैंसर का कारगर इलाज किया जाने लगा है। प्रदेश के चारों बड़े शहरो भोपाल, ग्वालियर, इंदौर और जबलपुर में इसका इलाज किया जाता है। संबंधित संस्थानों में कारगर इलाज होता है। उनके नाम इस प्रकार हैं।
भोपाल-
जवाहर लाल नेहरू कैंसर हॉस्पिटल एवं रिसर्च सेंटर
हमीदिया हॉस्पिटल
नवोदय हॉस्पिटल
चिरायु हॉस्पिटल

ग्वालियर-
रीजनल कैंसर सेंटर
इंदौर-
सीएचएल अपोलो
अरविन्दो हॉस्पिटल
चौइथराम हॉस्पिटल

जबलपुर-
नेताजी सुभाष चंद्र मेडिकल कॉलेज

ये करें-
अच्छा और पोषक तत्वों से भरपूर खाना लें।
नियंत्रित जीवनशैली जिएं

फैक्ट-

  •  अमरीका की सी.डी.सी. के अनुसार धुआं रहित तम्बाकू में भी 28 कैंसर पैदा करने वाले तत्व होते हैं और धुआं-रहित तम्बाकू कैंसर का एक जनक है, खासतौर पर मुहं का कैंसर होने की सम्भावना कई गुना बढ़ जाती है।
  •  भारत में होने वाली मौतों का दूसरा कारण कैंसर हैं। देश में इसकी रफ्तार 11 फीसदी के दर से सालाना बढ़ रही है। 2.5 मिलयन कैंसर से पीड़ित हैं।
  • पांच में से एक भारतीय (30-69 वर्ष) तंबाकू से होने होने वाले कैंसर के कारण काल कवलित हो जाता है।


इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च आन कैंसर के मुताबिक एशिया महाद्वीप में कैंसर की स्थिति-
ईस्टर्न एशिया  केस                                                               मृत्यु
   पुरुष               महिला             कुल                            पुरुष         महिला        कुल
   2,135,300    1,585,400         3,720,700              1,511,800    928,600   2,440,400
साउथ सेंट्रल एशिया  
 651,100         772,000          1,423,100                 496,800       483,200   979,900
(भारत शामिल)
साउथ ईस्ट्रन एशिया  
336,700          388,800           725,600                    258,600       242,400   501,000
वेस्टर्न एशिया 
 118,500          104,800           223,300                    86,700          64,400    151,200

समलैंगिकता दोष नहीं, पारिवारिक सहयोग जरूरी

Thursday, July 4, 2013

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लाइफस्टाइल के बदलते स्वरूप के कारण लोगों में शारीरिक और सामाजिक व स्वाभाविक परिवर्तनों का होना लाजिमी है; हालांकि ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। वक्त के तकाजे को समझते हुए पैरेंट्स को इस बात को समझना होगा कि उनके बच्चे में यदि लिंग के विपरीत किसी भी प्रकार का स्वभाव परिवर्तन नजर आ रहा है, तो उसे नजरअंदाज न करें, बल्कि मनोचिकित्सक व मनोवैज्ञानिकों से उचित परामर्श लेकर समस्या का हल ढूंढें। शहर के मनोचिकित्सकों से बात करने से इस बात का खुलासा  हुआ है कि गे और लेस्बिन्स की संख्या बढ़ रही है। अपनी भावनाओं और जरूरतों के बारे में ऐसे लोग खुलकर तो सामने नहीं आ रहे हैं, लेकिन मनोचकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों ने इस संबंध में बात कर रहे हैं और सलाह भी ले रहे हैं। विशेषज्ञों की माने तो इस तरह के मामलों में तीस से चार प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो रही है।


मनोचिकित्सक डॉ. काकोली राय कहती हैं कि इस तरह के लोगों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है, बल्कि उनकी जरूरत और शारीरिक परिवर्तनों को ध्यान में रखकर परिवार और सामाज के लोगों को उनकी मदद करनी चाहिए। समलैंगिकों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ओर से जिस तरह के निर्णय आएं हैं, उनसे ऐसे लोगों को बल मिला है। यही वजह है कि समलैगिंक अपनी समस्याओं को मनोचिकित्सकों के सामने रखकर समस्या का निदान ढूंढ रहे हैं। समलैंगिकों के मामले अभी तक मेट्रोज तक ही सीमित थे, लेकिन इनका दायरा छोटे शहरों में भी बढ़ रहा है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि सोसाइटी में ऐसे लोग पहले से ही थे, लेकिन संकोच और सामाजिक भय के कारण सामने नहीं आ पा रहे थे, लेकिन कोर्ट के निर्णयों और मीडिया में आम होती खबरों से उन्हें बल मिला है और वे अपने संबंधों को स्वीकारने के लिए सामाजिक रूप से कदम भी उठा रहे हैं। इसके बारे में मनोचिकित्सक डॉ. काकोली कहती हैं कि महीने में चार-पांच लोग ऐसे आते हैं जो गे और लेस्बियन होते हैं।
इसमें व्यक्ति का कोई दोष नहीं है, यह तो उसके अन्दर होने वाले शारीरिक परिवर्तन हैं, जिनके कारण एक ही तरह के लिंग के प्रति उनका आकर्षण बढ़ता है। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि ऐसे लोग शादी-शुदा जिन्दगी नहीं जी सकते या फिर महिलाएं मां नहीं बन सकती हैं। अगर माता-पिता व परिवार के सदस्य उन्हें सपोर्ट करें तो वे अच्छा जीवन जी सकते हैं, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि समस्या को समय रहते ही नियंत्रित कर लिया जाए।

कराया लिंग परिवर्तन-
माता-पिता के लिए इस तरह के निर्णय लेना बहुत कठिन होता है। अक्सर पैरेंट्स तो इस तरह के शब्द सुनकर ‘क्या मेरा बच्चा गे या लेस्बियन है ! ’ सुनकर सॉक्ड रह जाते हैं। डॉ. काकोली ने बताया कि जब उनके पास ऐसे केस आए और उन्होंने पैरेंट्स को बातचीत के बाद बताया कि उनका बच्चा ऐसा है, तो पैरेन्ट्स सुनते ही बेहोस हो गए। जैसे-तैसे उन्हें समझाया फिर बात बनी। बात ऐसी बनी कि उन्होंने बच्चे का लिंग परिवर्तन कराने का निर्णय ले लिया। नाम न बताने की शर्त पर उन्होंने बताया कि फीमेल; मेल में कन्वर्ट हो गई।
पैरेंट्स को स्वयं इस बात को स्वीकारना होग कि बच्चा उनका है तो निर्णय भी उन्हें ही लेने होंगे। सामाजिक डर और लोगों की बातों को ध्यान में रखकर अपने बच्चे/ युवक/ युवतियों को अकेला न छोड़ें।

सताता है सामाजिक डर-
मनोचिकित्सक डॉ. पूनम सिंह कहती हैं कि उनके पास ऐसे केसेज आते हैं जो इस बात की शिकायत करते हैं कि सामाजिक भय और लोगों की छोटी मानसिकता के कारण वे खुलकर अपना जीवन नहीं जी पाते हैं। उनके पास आए ऐसे लोगों का कहना था कि यदि वे किसी रेस्टोरेंट में जाते हैं तो वहां बैठे आस-पास के लोग उन्हें ऐसे देखते हैं कि जैसे वे आसमान से उतरे हैं। तरह-तरह के कमेन्ट उन्हें सुनने पड़ते हैं। यदि बात ज्यादा बढ़ जाए तो हाथापाई की नौबत भी आ जाती है। ऐसे लोगों को सामाजिक सहयोग व पारिवारिक सहयोग की जरूरत है। ऐसे लोगों को दरकिनार करके इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है।

ध्यान दें पैरेंट्स-
अगर पैरेंट्स ध्यान दें तो बचपन से ही स्थिति को कंट्रोल किया जा सकता है, लेकिन शारीरिक परिर्वतनों और स्वभाव में परिवर्तन आ रहा है तो उसे एक दम से खत्म कर पाना थोड़ा मुश्किल होता है।
- अगर आपका बच्चा अपनी ही तरह के लोगों जैसे लड़का-लड़कों के साथ खेलने नहीं जाता, लड़कों के खेल और उनकी स्टाइल को पसंद नहीं करता तो इस प्रकार के लक्षण गे के हो सकते हैं।
- लड़का अगर लड़कियों की तरह कपड़े पहने, श्रृंगार करे तो ये समझ लें कि स्थिति ठीक नहीं है। ऐसी चीजों को इग्नोर न करें, बल्कि समय रहते परामर्श लें। बड़े में समस्या बढ़ सकती है।
- लड़की यदि लड़कों की तरह रहे। एक उम्र तक को ठीक लगता है कि वह लड़कों की स्टाइल में रहकर सभी तरह के कामकाज कर रही होती है, लेकिन उम्र के विशेष पड़ाव पर जाकर ऐसा ही स्वभाव बना रहता माता-पिता के लिए चिन्ताजनक हो जाता है। इसलिए बच्चे के हर तरह के क्रिया-कलापों पर नजर रखें। लड़कियों के प्रति बढ़ता उसका आकर्षण भी माता-पिता के लिए इंडीकेटर हो सकता है।

इनका कहना-
यह   बात बिल्कुल सच है कि सामाजिक भय के कारण ऐसे लोग सामने नहीं आ पा रहे हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है। समाज में अगर उन्हें गलत नजर से न देखा जाए तो ऐसे लोग खुलकर सामने आएंगे। ऐसे लोगों का स्वयं पर इसलिए भी जोर नहीं होता है; क्योंकि ये तो उनके अन्दर होने वाले शारीरिक परिर्वतनों का परिणाम होता है। लोगों को उन्हें बुरी नजर से नहीं देखना चाहिए।
डॉ. सुमित राय, मनोवैज्ञानिक

बेटे के लिए मन्नतें और बेटी का तिरस्कार

Wednesday, July 3, 2013

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हमारी संस्कृति और हमारी परंपराएं जिनके बीच हम पलते और बड़े होते हैं। बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे की सीढ़ी चढ़ते वक्त भी हम यही देखते हैं कि बेटियां हमारे लिए देवी के समान हैं। साल में दो बार नवरात्रि का जब पूजन हम करते हैं, तो नौ दिनों तक देवियों के रूप में सम्मान पाने वाली लड़कियां फूली नहीं समाती हैं, उन्हें इस बात की खुशी  होती है कि वे कितनी अच्छी संस्कृति और परिवेश में पल-बढ़ रही हैं। उनका आव-भगत तो देवियों की तरह किया जा रहा है। इतना सम्मान और प्यार मिलता है, कि  वे अपने अंधकारमय भविष्य की कल्पना भी नहीं कर पाती हैं।


यह सब सिर्फ कुछ वक्त की बातें होती हैं। असली जिंदगी तो उनकी शादी के बाद शुरू होती हैं। पुरुषवादी मानसिकता और सामाजिक परिवेश  के ताने-बाने के बीच वे घुटनभरी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाती हैं। लखनऊ के पास एक गांव में घटी घटना रोंगटे खड़े कर देने वाली है।
रागिनी (परिवर्तित नाम) ने किशोरावस्था भी पूरी नहीं कर पाई थी कि उसके घरवालों ने घर-परिवार देखकर उसकी शादी कर दी थी। वह दो बहिनें थी। मां और पिता ने लड़के की चाहत किए बगैर उन दोनों को बड़े ही नाज़ से पाला था। लाड़ली रागिनी को ससुराल में खूब प्यार मिला। शुरुआती वर्षों  में तो इस बात का उसे भान ही नहीं हुआ कि कुछ सालों में यही परिवार उसके ऊपर जुल्म बरसाएगा। शादी के कुछ साल भीतर ही वह एक बच्ची की मां बन गई। बेटी की परिवरिश और के काम-काज में लीन रहने वाली रागिनी घर, बाहर और खेतों पर जाकर मन से काम करती और अपने पति और परिवार का पूरा ध्यान रखती, लेकिन पता नहीं कब और कैसे उसके परिवार को नजर लग गई। वह चार बच्चियों की मां बन गई।
बच्चियों को जन्म देना उसके लिए पाप बन गया। पति आए दिन उसे मारता और पीटता। एक दिन तो इन्तहां हो गई। पति ने अपनी बड़ी बेटी को "सल्फास" की गोली तक खिला दी, खैर बेटी बच गई; क्योंकि रागिनी समय पर उसे अस्पताल लेकर पहुंच गई। एक समय था जब  रागिनी के पति को नेक मिजाज और हंस-मुख व्यवहार के लिए जाना जाता था, लेकिन उनका ये व्यवहार दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा था। चिढ़चिढ़े होते जा रहे थे। बात-बात पर बच्चियों  को पीटते। बच्चियां उनकी आंखों की किरकिरी बन गई थीं। समान शिक्षा का हक भी उनसे छीन लिया। उनकी पढ़ाई लिखाई सब बंद करवा दी। बच्चियां स्वयं कारोबार में लग गईं। हाट-बाजार में सामान बेंचती और अपनी जरूरतें पूरी करती। मां भी उनके साथ काम में लगी रहती।
आखिर रागिनी बेटे को जन्म नहीं दे सकी। इसमें उसका क्या कसूर ? लेकिन उसका पति उसे ही दोषी समझता। 'x' एक्स और 'y' वाय गुणसू़त्र ही बच्चे के लिंग निर्धारण के लिए जिम्मेदार होते हैं। महिला में एक्स-एक्स और पुरुष में एक्स और वाय गुणसू़त्र होता हैं। जब महिला का एक्स पुरुष के वाय गुणसू़त्र से मेल करता है तो लड़का और यदि महिला का एक्स पुरुष के एक्स से मेल करता है तो लड़की का निर्धारण होता है; क्योंकि महिला में सिर्फ एक्स गुणसूत्र का ही एक जोड़ा होता है, जबकि पुरुष में एक एक्स और एक वाय गुणसूत्र लिंग निर्धारण के लिए होते हैं । ऐसे में महिला की क्या गलती, अगर लड़की का जन्म हुआ। उसके पास तो सिर्फ एक्स गुणसूत्र ही होता है, वाय तो पुरुष से मिलता है। लड़की पैदा होने पर महिला को यातना दी जाती है, जबकि पुरुष इसके लिए जिम्मेदार होता है।
लड़का पैदा नहीं हुआ तो रागिनी का पति उसे दूसरी शादी करने की धमकी देता और कई बार तो नौबत भी आ पहुंची थी कि वह दूसरी शादी भी कर लेगा, लेकिन रागिनी ने जैसे-तैसे उसे रोका। उसे तो रोक लिया पर अपनी मौत न रोक सकी।
एक दिन जब वह बच्चियों के साथ खेत पर काम कर रही थी, तो उसका पति बड़े ही प्यार से उसे बुलाकर ले आया और कहा कि घर चलो और अच्छा सा खाना पकाओ। वो बेचारी चली गयी। बच्चियों से उसके पति ने कहा कि ‘‘जब तक मैं खेतों पर न आऊं,  तुम लोग यहीं रहना।‘‘ वहां जाकर उसने दरवाजा बंद किया और रागिनी को चारपाई में बांधकर उसके ऊपर से साडि़यां लपेटी और मिट्टी का तेल डालकर जला दिया। धूं -धूं कर रागिनी जलने लगी। जलकर साडि़यां खाक हो गईं तो रागिनी चारपाई से छूट गई और वह उठकर भागी, तब तक उसका बदन आधे से ज्यादा जल चुका था। घर का दरवाजा भी जलकर गिर गया। लोगों ने जब आग की लपटे देखी तो घर की ओर दौड़े और उसे अस्पताल ले गए। रागिनी का इलाज शुरू हुआ, लेकिन रागिनी आखिरी सांसे गिन रही थी और 24 घंटे के अंदर चल बसी।
लड़कियां घर आईं और उन्होंने जब ये मंजर देखा तो अवाक रह गईं, उनकी रूह कांप उठी। उन्हें लगा कि उनका पिता अब उनके साथ भी ऐसा ही सुलूक करेगा; क्योंकि पहले भी वह उन्हें मारने की कोशिश कर चुका था। तेज धारधार औजार घर में लाकर उसने रखे थे और मारने की प्लानिंग भी की थी, लेकिन उन भोली बच्चियों ने उसकी मंशा  को भांपकर उन औजारों को जमीन में गाढ़ दिया था।
 पति ने अपनी पत्नी को तो जला दिया, लेकिन वह पश्चाताप  की अग्नि में चल रहा था। ऐसा घिनौना कृत्य करने के बाद उसे जेल ही मिलती, शायद यही सोचकर उसने भी अपनी जिंदगी खत्म कर ली और फांसी के फंदे पर झूल गया।
जब तक लड़कियों और लड़के के बीच की खाई को पारवारिक , सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर नहीं पाटा जाएगा, तब तक ऐसे वाकये होते रहेंगें और हमें डराते रहेंगे। मेरा मानना है कि जिस तरह से लड़की को उसकी मां संस्कार और मूल्यों की शिक्षा देती है कि ससुराल में जाकर ऐसा करना, वैसा करना वगैरह-वगैरह........जब तक लड़के के अन्दर बचपन से लड़कियों के सम्मान और उनके साथ प्यार से रहने की मनोवृत्ति विकसित नहीं होगी , तब तक कुछ नहीं हो सकता हैं। मां ही इसकी नींव डाल सकती है। हर मां अपने बच्चे को ये सीख दे तो हो सकता है कि हमें रास्ता जल्दी मिल जाए। लड़के के सामने मां अपनी बेटी के साथ समानता का व्यवहार करे। यदि बाहरी परिवेश  को देखकर वह किसी तरह की भेदभाव से जुड़ी हरकत करता भी है तो उस पर षिकंजा कसा जाए। उसकी वाणी और बोली पर लगाम लगाई जाए। शब्द और व्यवहार में स्त्रियों के लिए प्यार पैदा हो, ऐसी परवरिश दी जाए। तभी यह संभव हो सकता है। विकास की रफ्तार के साथ दौड़ती इस जिंदगी में अच्छी परवरिष की बुनियादें पीछे छूट गईं हैं। मनुष्य में मनुष्यता खत्म होती जा रही है।

(यह सच्ची घटना  है- जैसा कि रागिनी की चचेरी बहिन सरिता ने बताया)

बेटे के लिए मन्नतें और बेटी का तिरस्कार

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हमारी संस्कृति और हमारी परंपराएं जिनके बीच हम पलते और बड़े होते हैं। बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे की सीढ़ी चढ़ते वक्त भी हम यही देखते हैं कि बेटियां हमारे लिए देवी के समान हैं। साल में दो बार नवरात्रि का जब पूजन हम करते हैं, तो नौ दिनों तक देवियों के रूप में सम्मान पाने वाली लड़कियां फूली नहीं समाती हैं, उन्हें इस बात की खुशी  होती है कि वे कितनी अच्छी संस्कृति और परिवेश में पल-बढ़ रही हैं। उनका आव-भगत तो देवियों की तरह किया जा रहा है। इतना सम्मान और प्यार मिलता है, कि  वे अपने अंधकारमय भविष्य की कल्पना भी नहीं कर पाती हैं।
यह सब सिर्फ कुछ वक्त की बातें होती हैं। असली जिंदगी तो उनकी शादी के बाद शुरू होती हैं। पुरुषवादी मानसिकता और सामाजिक परिवेश  के ताने-बाने के बीच वे घुटनभरी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाती हैं। लखनऊ के पास एक गांव में घटी घटना रोंगटे खड़े कर देने वाली है।
रागिनी (परिवर्तित नाम) ने किशोरावस्था भी पूरी नहीं कर पाई थी कि उसके घरवालों ने घर-परिवार देखकर उसकी शादी कर दी थी। वह दो बहिनें थी। मां और पिता ने लड़के की चाहत किए बगैर उन दोनों को बड़े ही नाज़ से पाला था। लाड़ली रागिनी को ससुराल में खूब प्यार मिला। शुरुआती वर्षों  में तो इस बात का उसे भान ही नहीं हुआ कि कुछ सालों में यही परिवार उसके ऊपर जुल्म बरसाएगा। शादी के कुछ साल भीतर ही वह एक बच्ची की मां बन गई। बेटी की परिवरिश और के काम-काज में लीन रहने वाली रागिनी घर, बाहर और खेतों पर जाकर मन से काम करती और अपने पति और परिवार का पूरा ध्यान रखती, लेकिन पता नहीं कब और कैसे उसके परिवार को नजर लग गई। वह चार बच्चियों की मां बन गई।
बच्चियों को जन्म देना उसके लिए पाप बन गया। पति आए दिन उसे मारता और पीटता। एक दिन तो इन्तहां हो गई। पति ने अपनी बड़ी बेटी को "सल्फास" की गोली तक खिला दी, खैर बेटी बच गई; क्योंकि रागिनी समय पर उसे अस्पताल लेकर पहुंच गई। एक समय था जब  रागिनी के पति को नेक मिजाज और हंस-मुख व्यवहार के लिए जाना जाता था, लेकिन उनका ये व्यवहार दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा था। चिढ़चिढ़े होते जा रहे थे। बात-बात पर बच्चियों  को पीटते। बच्चियां उनकी आंखों की किरकिरी बन गई थीं। समान शिक्षा का हक भी उनसे छीन लिया। उनकी पढ़ाई लिखाई सब बंद करवा दी। बच्चियां स्वयं कारोबार में लग गईं। हाट-बाजार में सामान बेंचती और अपनी जरूरतें पूरी करती। मां भी उनके साथ काम में लगी रहती।
आखिर रागिनी बेटे को जन्म नहीं दे सकी। इसमें उसका क्या कसूर ? लेकिन उसका पति उसे ही दोषी समझता। 'x' एक्स और 'y' वाय गुणसू़त्र ही बच्चे के लिंग निर्धारण के लिए जिम्मेदार होते हैं। महिला में एक्स-एक्स और पुरुष में एक्स और वाय गुणसू़त्र होता हैं। जब महिला का एक्स पुरुष के वाय गुणसू़त्र से मेल करता है तो लड़का और यदि महिला का एक्स पुरुष के एक्स से मेल करता है तो लड़की का निर्धारण होता है; क्योंकि महिला में सिर्फ एक्स गुणसूत्र का ही एक जोड़ा होता है, जबकि पुरुष में एक एक्स और एक वाय गुणसूत्र लिंग निर्धारण के लिए होते हैं । ऐसे में महिला की क्या गलती, अगर लड़की का जन्म हुआ। उसके पास तो सिर्फ एक्स गुणसूत्र ही होता है, वाय तो पुरुष से मिलता है। लड़की पैदा होने पर महिला को यातना दी जाती है, जबकि पुरुष इसके लिए जिम्मेदार होता है।
लड़का पैदा नहीं हुआ तो रागिनी का पति उसे दूसरी शादी करने की धमकी देता और कई बार तो नौबत भी आ पहुंची थी कि वह दूसरी शादी भी कर लेगा, लेकिन रागिनी ने जैसे-तैसे उसे रोका। उसे तो रोक लिया पर अपनी मौत न रोक सकी।
एक दिन जब वह बच्चियों के साथ खेत पर काम कर रही थी, तो उसका पति बड़े ही प्यार से उसे बुलाकर ले आया और कहा कि घर चलो और अच्छा सा खाना पकाओ। वो बेचारी चली गयी। बच्चियों से उसके पति ने कहा कि ‘‘जब तक मैं खेतों पर न आऊं,  तुम लोग यहीं रहना।‘‘ वहां जाकर उसने दरवाजा बंद किया और रागिनी को चारपाई में बांधकर उसके ऊपर से साडि़यां लपेटी और मिट्टी का तेल डालकर जला दिया। धूं -धूं कर रागिनी जलने लगी। जलकर साडि़यां खाक हो गईं तो रागिनी चारपाई से छूट गई और वह उठकर भागी, तब तक उसका बदन आधे से ज्यादा जल चुका था। घर का दरवाजा भी जलकर गिर गया। लोगों ने जब आग की लपटे देखी तो घर की ओर दौड़े और उसे अस्पताल ले गए। रागिनी का इलाज शुरू हुआ, लेकिन रागिनी आखिरी सांसे गिन रही थी और 24 घंटे के अंदर चल बसी।
लड़कियां घर आईं और उन्होंने जब ये मंजर देखा तो अवाक रह गईं, उनकी रूह कांप उठी। उन्हें लगा कि उनका पिता अब उनके साथ भी ऐसा ही सुलूक करेगा; क्योंकि पहले भी वह उन्हें मारने की कोशिश कर चुका था। तेज धारधार औजार घर में लाकर उसने रखे थे और मारने की प्लानिंग भी की थी, लेकिन उन भोली बच्चियों ने उसकी मंशा  को भांपकर उन औजारों को जमीन में गाढ़ दिया था।
 पति ने अपनी पत्नी को तो जला दिया, लेकिन वह पश्चाताप  की अग्नि में चल रहा था। ऐसा घिनौना कृत्य करने के बाद उसे जेल ही मिलती, शायद यही सोचकर उसने भी अपनी जिंदगी खत्म कर ली और फांसी के फंदे पर झूल गया।
जब तक लड़कियों और लड़के के बीच की खाई को पारवारिक , सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर नहीं पाटा जाएगा, तब तक ऐसे वाकये होते रहेंगें और हमें डराते रहेंगे। मेरा मानना है कि जिस तरह से लड़की को उसकी मां संस्कार और मूल्यों की शिक्षा देती है कि ससुराल में जाकर ऐसा करना, वैसा करना वगैरह-वगैरह........जब तक लड़के के अन्दर बचपन से लड़कियों के सम्मान और उनके साथ प्यार से रहने की मनोवृत्ति विकसित नहीं होगी , तब तक कुछ नहीं हो सकता हैं। मां ही इसकी नींव डाल सकती है। हर मां अपने बच्चे को ये सीख दे तो हो सकता है कि हमें रास्ता जल्दी मिल जाए। लड़के के सामने मां अपनी बेटी के साथ समानता का व्यवहार करे। यदि बाहरी परिवेश  को देखकर वह किसी तरह की भेदभाव से जुड़ी हरकत करता भी है तो उस पर षिकंजा कसा जाए। उसकी वाणी और बोली पर लगाम लगाई जाए। शब्द और व्यवहार में स्त्रियों के लिए प्यार पैदा हो, ऐसी परवरिश दी जाए। तभी यह संभव हो सकता है। विकास की रफ्तार के साथ दौड़ती इस जिंदगी में अच्छी परवरिष की बुनियादें पीछे छूट गईं हैं। मनुष्य में मनुष्यता खत्म होती जा रही है।

(यह सच्ची घटना  है- जैसा कि रागिनी की चचेरी बहिन सरिता ने बताया)

मातृत्व के बिचौलिये

Saturday, February 23, 2013

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अंकिता मिश्रा
हमने ये सुना है और महसूस भी किया है कि मां दुनिया की सर्वोत्तम कृति है। इसकी जगह कोई नहीं ले सकता है। मां बच्चे को नौ महीने कोख में रखती है और फिर उसे जन्म देती है। इसके बाद उसकी परवरिश  की जिम्मेदारी भी उसी के हाथों में होती है। कहा जाता है कि हर एक स्त्री का सपना होता है कि वह अपने बच्चे की मां बने। उस पर अपनी ममता और दुलार की बरसात करे। यह सब बड़ा ही सुकून देने वाला होता है। स्त्री बगैर मां बने अधूरी है, लेकिन स्त्रीवादी सोच इसे सही नहीं मानती है। महिला जैविक रूप से बच्चा देने में सक्षम है, लेकिन इसका ये तो मतलब नहीं है कि उसका सिर्फ उद्देश्य  बच्चा पैदा करने तक ही सीमित है। उसके भी अपने सपने हैं, ख्वाहिशें  हैं, महत्वाकांक्षाएं हैं, जिन्हें वह स्वयं आगे आकर साकार करना चाहती हैं। लेकिन इन सबके पीछे बहुत कुछ पीछे छूटा जा रहा है। वे इतना आगे चली जाती हैं कि भावनाएं, प्यार, महत्व और अहसास उनके कदमों द्वारा रौंद दिया जाता है। जब वे अपने अतीत को पुनः याद करते हुए भविष्य पर नजरें टिकाती हैं, तो उन्हें लगता हैं कि वे छली गईं हैं, लेकिन उन्हें किसने छला ? यह सबसे बड़ा प्रश्न  उनके सामने खड़ा होता है। 

जबकि सच्चाई यह है कि समाज को दिखावे के लिए तैयार की गई महत्वकांक्षा के लिए स्वयं द्वारा स्वयं छली गईं हैं। अब मैं मुद्दे पर आती हूं। ऊपर जो बातें मैंने कहीं वे नारी के ऊपर किए जाने वाले आघातों को इंगित करती हैं। विज्ञान भी उनके साथ दुराव्यवहार करती है। बाजार भी उनके लिए तरह-तरह के साधन गढ़ता है। मां तो हर स्त्री बनना चाहती है, लेकिन उसके स्वभाव और तरीके अलग हैं।
बाजार और विज्ञान ने तरह-तरह के साधन मुहैया करा दिये हैं। करियर और स्थापित होने के कारण यदि स्त्री अपनी मां बनने की संभावनाओं को खो देती है, तो भी उसे चिन्ता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि विज्ञान उसके लिए वरदान साबित हुई है। उसे कब मां बनना है, कौन सा दिन मां बनने के लिए सही रहेगा। इतना तक तकनीक के द्वारा आसानी से घर पर एक स्त्री एक किट के जरिए पता कर सकती है। बच्चा दुनिया में लाने के लिए टेस्ट ट्यूब बेबी, सेरोगेसी, अंडाणु बैंक सहित ऐसे तमाम तरह के साधन हैं, जिसके जरिए वह मां बन सकती है, लेकिन सवाल यह है कि वह मातृत्व सुख क्या प्राप्त कर सकेगी?  क्या बच्चे को  मां के साथ वो प्यार और भावनाएं मिल सकेंगी जो प्राकृतिक रूप से उसे जन्म लेने पर मिलतीं।
सेरोगेसी पूरी तरह से बाजार बन चुकी है। बड़े-बड़े कार्पोरेट घराने और कंपनियां इस काम में लगी हैं। लेकिन किसी ने ये सोचा कि जो सेरोगेट मदर बच्चे को अपनी कोख में रखती है, उसकी भावनाओं और अधिकारों का ध्यान कितना रखा जाता है। तकनीक और पैसे की आड़ में उनका शोषण किया जा रहा है। चंद रुपए देकर उसकी भावनाओं और सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है। एक स्त्री मां नहीं बन सकती या फिर उसके पास मां बनने के लिए वक्त नहीं है, उसे और भी अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पूरे करने हैं, लेकिन अपने वंश को बढ़ाने के लिए वह अपना खुद का बच्चा चाहती है, इसके लिए सेरोगेट मदर ढूंढती हैं और अपनी इच्छा के मुताबिक चुनाव करती है और मनचाही औलाद को जन्म देती है। वह ऐसा इसलिए कर पाने में सक्षम है, क्योंकि उसके पास पैसा है, लेकिन एक ऐसी स्त्री जो चंद पैसों के खातिर अपनी कोख को किराये पर देती है, उसके अधिकारों और भावनाओं की कितनी कद्र होती है, इससे उस मां को कोई लेना देना नहीं। आखिर यहां पर ही एक मां द्वारा ही मां छली जाती है। दमन स्त्री का ही होता है। ऐसे में तो विज्ञान और तकनीक भी ढकोसला ही साबित हो रही हैं। सेरोगट मदर को फैक्ट्री समझा जाता है एक के बाद एक नए बच्चे को जनम देने के लिए उन्हें तैयार रहना पड़ता है; चाहे वे इसके लिए तैयार हो या फिर नहीं, क्योंकि ऐसे अनुबंध उन डॉक्टरों  द्वारा कराए जाते हैं, जो मातृत्व को अपना बिजनेस समझकर अपनी दुकान चला रहे हैं। हमारे देश में सेरोगेसी बहुत बड़ा धन्धा बनकर सामने आ रहा है और इसको संचालित करने वाले डॉक्टर  मातृत्व के बिचैलिए हैं।

अब तो ऐसी तकनीक भी आ गई है जिसके जरिए उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी बच्चे की चाहत रखने वाले दम्पत्ति, स्त्री व पुरुष को मां व बाप बनने का सुख मिल सकता है। शुक्राणु व अंडाणु को तकनीक रूप से समृद्ध बैंक में रखकर कभी भी बच्चे की कामना को पूरा किया जा सकता है, लेकिन इन सभी तकनीकि का उपयोग के साथ-साथ दुरूप्रयोग भी हो रहा है, जिसका असर स्त्री के स्वास्थ्य पर ही पड़ रहा है। इसे रिप्रोडेक्टिव हेल्थ कहा जाता है। भागदौड़ और जिन्दगी में आगे बड़ने की लालसा में स्त्री और पुरुष लगे रहते हैं। बच्चा प्राप्त करने की प्राकृतिक और उचित अवस्था को जब वे पार कर जाते हैं, तो बाद में कई तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। इसमें पुरुषों को कोई तकलीफ नहीं होती है। महिला पर ही शारीरिक प्रभाव पड़ता है। सही समय पर सही शारीरिक बदलाव नहीं होने पर कष्ट उनके ही शरीर को होता है। यदि मां देर से बनती हैं, तो भी शरीर का हार्मोन तंत्र गड़बड़ा जाता है। मां नहीं बनने के लिए तरह-तरह के साधन यदि वे इस्तेमाल करती हैं तो भी उनके शरीर व स्वास्थ्य पर अप्रत्यक्ष असर पड़ता है। एक बात ये गौर करने वाली है जो साधन बच्चे को पैदा होने या पैदा होने से रोकने के लिए बनाए गए हैं, वे सिर्फ स्त्री के लिए, पुरुषों के लिए विज्ञान ने ऐसी तकनीकें इजाद नहीं की हैं, जो कि स्त्रियों की तकलीफों को बांट सकें। आखिरकार विज्ञान भी तकनीक के रूप में स्त्री के लिए यातनाएं लेकर आती है। वरिष्ठ कथाकर संजीव कहते हैं कि स्त्री और पुरुषों के बीच का भेदभाव तभी खत्म होगा, जब विज्ञान नए चमत्कार के साथ सामने आएगा और उनके बीच की खाई को पाट देगा। स्त्री के गर्भ में जब विस्फोट होगा, तभी स्थिति में बदलाव होगा। कहने का तात्पर्य यही है कि जब स्त्री और पुरुष दोनों में जीव को जन्म देने के गुण विद्यमान होंगे। तभी ये भेद मिट सकेगा। इंतजार है ऐसे विस्फोट का जो स्त्री-पुरुष की बजाय मानुष की बात करे।