मातृत्व के बिचौलिये

Saturday, February 23, 2013

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अंकिता मिश्रा
हमने ये सुना है और महसूस भी किया है कि मां दुनिया की सर्वोत्तम कृति है। इसकी जगह कोई नहीं ले सकता है। मां बच्चे को नौ महीने कोख में रखती है और फिर उसे जन्म देती है। इसके बाद उसकी परवरिश  की जिम्मेदारी भी उसी के हाथों में होती है। कहा जाता है कि हर एक स्त्री का सपना होता है कि वह अपने बच्चे की मां बने। उस पर अपनी ममता और दुलार की बरसात करे। यह सब बड़ा ही सुकून देने वाला होता है। स्त्री बगैर मां बने अधूरी है, लेकिन स्त्रीवादी सोच इसे सही नहीं मानती है। महिला जैविक रूप से बच्चा देने में सक्षम है, लेकिन इसका ये तो मतलब नहीं है कि उसका सिर्फ उद्देश्य  बच्चा पैदा करने तक ही सीमित है। उसके भी अपने सपने हैं, ख्वाहिशें  हैं, महत्वाकांक्षाएं हैं, जिन्हें वह स्वयं आगे आकर साकार करना चाहती हैं। लेकिन इन सबके पीछे बहुत कुछ पीछे छूटा जा रहा है। वे इतना आगे चली जाती हैं कि भावनाएं, प्यार, महत्व और अहसास उनके कदमों द्वारा रौंद दिया जाता है। जब वे अपने अतीत को पुनः याद करते हुए भविष्य पर नजरें टिकाती हैं, तो उन्हें लगता हैं कि वे छली गईं हैं, लेकिन उन्हें किसने छला ? यह सबसे बड़ा प्रश्न  उनके सामने खड़ा होता है। 

जबकि सच्चाई यह है कि समाज को दिखावे के लिए तैयार की गई महत्वकांक्षा के लिए स्वयं द्वारा स्वयं छली गईं हैं। अब मैं मुद्दे पर आती हूं। ऊपर जो बातें मैंने कहीं वे नारी के ऊपर किए जाने वाले आघातों को इंगित करती हैं। विज्ञान भी उनके साथ दुराव्यवहार करती है। बाजार भी उनके लिए तरह-तरह के साधन गढ़ता है। मां तो हर स्त्री बनना चाहती है, लेकिन उसके स्वभाव और तरीके अलग हैं।
बाजार और विज्ञान ने तरह-तरह के साधन मुहैया करा दिये हैं। करियर और स्थापित होने के कारण यदि स्त्री अपनी मां बनने की संभावनाओं को खो देती है, तो भी उसे चिन्ता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि विज्ञान उसके लिए वरदान साबित हुई है। उसे कब मां बनना है, कौन सा दिन मां बनने के लिए सही रहेगा। इतना तक तकनीक के द्वारा आसानी से घर पर एक स्त्री एक किट के जरिए पता कर सकती है। बच्चा दुनिया में लाने के लिए टेस्ट ट्यूब बेबी, सेरोगेसी, अंडाणु बैंक सहित ऐसे तमाम तरह के साधन हैं, जिसके जरिए वह मां बन सकती है, लेकिन सवाल यह है कि वह मातृत्व सुख क्या प्राप्त कर सकेगी?  क्या बच्चे को  मां के साथ वो प्यार और भावनाएं मिल सकेंगी जो प्राकृतिक रूप से उसे जन्म लेने पर मिलतीं।
सेरोगेसी पूरी तरह से बाजार बन चुकी है। बड़े-बड़े कार्पोरेट घराने और कंपनियां इस काम में लगी हैं। लेकिन किसी ने ये सोचा कि जो सेरोगेट मदर बच्चे को अपनी कोख में रखती है, उसकी भावनाओं और अधिकारों का ध्यान कितना रखा जाता है। तकनीक और पैसे की आड़ में उनका शोषण किया जा रहा है। चंद रुपए देकर उसकी भावनाओं और सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है। एक स्त्री मां नहीं बन सकती या फिर उसके पास मां बनने के लिए वक्त नहीं है, उसे और भी अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पूरे करने हैं, लेकिन अपने वंश को बढ़ाने के लिए वह अपना खुद का बच्चा चाहती है, इसके लिए सेरोगेट मदर ढूंढती हैं और अपनी इच्छा के मुताबिक चुनाव करती है और मनचाही औलाद को जन्म देती है। वह ऐसा इसलिए कर पाने में सक्षम है, क्योंकि उसके पास पैसा है, लेकिन एक ऐसी स्त्री जो चंद पैसों के खातिर अपनी कोख को किराये पर देती है, उसके अधिकारों और भावनाओं की कितनी कद्र होती है, इससे उस मां को कोई लेना देना नहीं। आखिर यहां पर ही एक मां द्वारा ही मां छली जाती है। दमन स्त्री का ही होता है। ऐसे में तो विज्ञान और तकनीक भी ढकोसला ही साबित हो रही हैं। सेरोगट मदर को फैक्ट्री समझा जाता है एक के बाद एक नए बच्चे को जनम देने के लिए उन्हें तैयार रहना पड़ता है; चाहे वे इसके लिए तैयार हो या फिर नहीं, क्योंकि ऐसे अनुबंध उन डॉक्टरों  द्वारा कराए जाते हैं, जो मातृत्व को अपना बिजनेस समझकर अपनी दुकान चला रहे हैं। हमारे देश में सेरोगेसी बहुत बड़ा धन्धा बनकर सामने आ रहा है और इसको संचालित करने वाले डॉक्टर  मातृत्व के बिचैलिए हैं।

अब तो ऐसी तकनीक भी आ गई है जिसके जरिए उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी बच्चे की चाहत रखने वाले दम्पत्ति, स्त्री व पुरुष को मां व बाप बनने का सुख मिल सकता है। शुक्राणु व अंडाणु को तकनीक रूप से समृद्ध बैंक में रखकर कभी भी बच्चे की कामना को पूरा किया जा सकता है, लेकिन इन सभी तकनीकि का उपयोग के साथ-साथ दुरूप्रयोग भी हो रहा है, जिसका असर स्त्री के स्वास्थ्य पर ही पड़ रहा है। इसे रिप्रोडेक्टिव हेल्थ कहा जाता है। भागदौड़ और जिन्दगी में आगे बड़ने की लालसा में स्त्री और पुरुष लगे रहते हैं। बच्चा प्राप्त करने की प्राकृतिक और उचित अवस्था को जब वे पार कर जाते हैं, तो बाद में कई तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। इसमें पुरुषों को कोई तकलीफ नहीं होती है। महिला पर ही शारीरिक प्रभाव पड़ता है। सही समय पर सही शारीरिक बदलाव नहीं होने पर कष्ट उनके ही शरीर को होता है। यदि मां देर से बनती हैं, तो भी शरीर का हार्मोन तंत्र गड़बड़ा जाता है। मां नहीं बनने के लिए तरह-तरह के साधन यदि वे इस्तेमाल करती हैं तो भी उनके शरीर व स्वास्थ्य पर अप्रत्यक्ष असर पड़ता है। एक बात ये गौर करने वाली है जो साधन बच्चे को पैदा होने या पैदा होने से रोकने के लिए बनाए गए हैं, वे सिर्फ स्त्री के लिए, पुरुषों के लिए विज्ञान ने ऐसी तकनीकें इजाद नहीं की हैं, जो कि स्त्रियों की तकलीफों को बांट सकें। आखिरकार विज्ञान भी तकनीक के रूप में स्त्री के लिए यातनाएं लेकर आती है। वरिष्ठ कथाकर संजीव कहते हैं कि स्त्री और पुरुषों के बीच का भेदभाव तभी खत्म होगा, जब विज्ञान नए चमत्कार के साथ सामने आएगा और उनके बीच की खाई को पाट देगा। स्त्री के गर्भ में जब विस्फोट होगा, तभी स्थिति में बदलाव होगा। कहने का तात्पर्य यही है कि जब स्त्री और पुरुष दोनों में जीव को जन्म देने के गुण विद्यमान होंगे। तभी ये भेद मिट सकेगा। इंतजार है ऐसे विस्फोट का जो स्त्री-पुरुष की बजाय मानुष की बात करे।