पैसे के लिए आदमी इंसानियत खोता जा रहा है। छोटे-छोटे जीवों की निर्ममता से हत्या करता जा रहा है। व्याक्ति के दिमाग पर सिर्फ पेट की और शारीरिक भूख ही हावी होती जा रही है। संबंधों की न तो कोई मर्यादा रह गई है और न ही गरिमा। हालांकि यह सब पहले से होता आया है, लेकिन वर्तमान में माध्य मों की सक्रियता से परते खुलती जा रही हैं। नए साल में आने वाली नवाजुद्दीन सिद्दकी की फिल्मे ‘हरामखोर’ जहां गुरु शिष्या परंपरा को शर्मनार करने वाले कृत्यों् को उजागर करती हैं जोकि यह बताती है कि शारीरिक भूख मिटाने के लिए पुरुष कुछ भी कर सकता है। अपनी नाबालिक छात्रा को भी नहीं छोड़ता जोकि अपने बेहतर कल के सपने बुनने के लिए शिक्षक के पास जाती है और वही उसे अपनी हवस का शिकार बना लेता है। समाज में इस तरह के कृत्यर मन को बहुत ही विचलित करते हैं। सांस्कृ तिक मूल्यों का पाठ और उनकी गरिमा का बखान करने वाले देश भारत के मूल्योंु में दिन प्रतिदिन गिरावट आ रही है। ऐसे में जरूरी है कि माता-पिता स्वेयं पहल करें। बच्चोंल को हमेशा अपनी निगरानी में रखें। हालांकि ऐसा करना बच्चोंल को बुरा लग सकता है, लेकिन उनके लिए ऐसा करना जरूरी भी है। उनके अंदर नैतिक भाव, अच्छेर-बुरे की समझ, अच्छाि स्प र्श, बुरा स्पमर्श जैसी बातें उम्र के शुरुआती पड़ाव में ही बताना जरूरी है। माता-पिता बच्चोंा के साथ जितना खुलकर जिएंगे, बच्चे् भावात्मेक रूप से उनसे उतना ही जुड़ेंगे और अपनी हर एक समस्याि को उनसे साझा करेंगे। माता-पिता को चाहिए चाहे लड़का हो या लड़की, सबको समान शिक्षा, समान अधिकार की भावना से अभिप्रेरित करें। इतना ही नहीं सामाजिक सुरक्षा व मूल्यों के लिए दोनों को समान तालीम दें। यदि लड़की देर रात घर से बाहर नहीं रह सकती तो लड़के को भी यही बताएं। सामाजिक माहौल को सुधारने के लिए दोनों का उत्तररदायी होना आवश्यरक है। यह नींव बच्चों में शिशुकाल से डालनी होगी तभी आगे जाकर बात बनेगी। इसके साथ ही माता-पिता को भी यह साबित करना होगा कि जो शिक्षा वे अपने बच्चोंध को दे रहे है उसका पालन स्वोयं भी करते हैं। घर का वातावरण जब समता मूलक होगा तभी बच्चोंी में भी ऐसी भावना विकसित होगी। संतुलन हर एक चीज का अच्छा होता है, असंतुलन से विकृति ही आती है।
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