आ अब लौट चलें

Monday, June 25, 2012

हर बार हम डॉक्टर्स डे के बहाने डॉक्टरों से अपील करते हैं कि वे अपनी सेवाओं के प्रति सजग रहें, अपने चिकित्सीय पेशे की मूल भावना को साथ लेकर किस तरह से देश के लोगों के जीवन के रक्षक बन सकते हैं, लेकिन परिणाम कुछ सामने निकलकर नहीं आ रहे हैं। अस्पताल, सड़क और प्रशिक्षित चिकित्सकों के अभाव में हजारों की संख्या में जिन्दगियां दम तोड़ देती हैं, लेकिन हम शहरी परिवेश से बाहर ही नहीं निकलना चाहते हैं। गांवों में शहरों जैसा ऐश-ओ-आराम नहीं है, इसीलिए तो हम वहां जाने से कतराते हैं, लेकिन हमें ये भी तो सोचना चाहिए कि जिनके बीच हम जाने के लिए राजी नहीं है, वे तो वहीं रहकर अपनी जिन्दगी गुजार देते हैं। पता नहीं, आज की युवा पीढ़ी या फिर इस चिकित्सकीय कार्य में लगे हुए लोग (डॉक्टर, कम्पाउंडर या नर्स) जब ये कहते हैं कि हमें गांव में काम नहीं करना, वहां रखा ही क्या है ? सुनकर बड़ा अटपटा लगता है। मुझे आज भी अपने बचपन के दिन नहीं भूलते हैं।

 गांव वालों के दिलों में डॉक्टर और इस काम से जुड़े लोगों के प्रति जो स्नेह बरसता है, शायद ही शहरों में उन्हें मिलता हो। गांवों में रहकर प्रकृति की आबो-हवा तो मिलती ही है, साथ ही स्नेहदिल लोगों का साथ भी मिलता है। हर मौसम में फलों, सब्जियों का प्राकृतिक स्वाद मिलता है। मुझे याद है कि आधी रात को भी अगर कोई गांव का व्यक्ति इलाज के लिए पापा को बुलाने आता तो वे एकदम से उठ खड़े होते और उसी वक्त ‘मरीज’ को देखने पहुंच जाया करते थे। ऐसी घटनाएं एक दिन नहीं; बल्कि आए दिन हुआ करती थीं। दूसरों की जिन्दगी बचाना और उन्हें बेहतर चिकित्सा सुविधाएं पहुंचा ही उनके लिए उस वक्त जरूरी हुआ करता था। उनकी इस मेहनत और इंसानियत के बदले में उन्हें क्या मिलेगा, उन्होंने कभी नहीं सोचा। इतना जरूर था कि हमारी परवरिश एक सच्चे हिन्दुस्तान में हो रही थी। खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, तालाब और नहरों से जुड़ी जानकारी हमारे लिए जिज्ञासा का विषय नहीं रही। कौन सी फसल कब होती है, बुवाई कैसे की जाती है, फूल कैसे खिलता है, कौन से फूल फल बनाते हैं और कौन से नहीं, तरह-तरह पेड़ों के बीज कैसे दिखते हैं, गन्ने के रस से गुड़ कैसे बनाया जाता है? यहां तक कि फसलों की बुवाई, निराई-गुड़ाई और कटाई करने का अवसर भी मैंने उस समय नहीं जाने दिया। पापा की नजरों से बचकर छुट्टी के दिन खेतों में पहुंच जाया करती थी। वे बड़े आनन्द भरे दिन थे। अगर आज भी कोई पूछता है तो झट से बता देती हूं। इसलिए नहीं कि मैंने इसकी कोई ट्यूशन ली है, बल्कि मैंने खेतों और हरियाली के बीच अपना बचपन गुजारा है। अगर पापा गांव में नौकरी नहीं कर रहे होते तो क्या मैं ये सब देख पाती। पापा को देखकर-देखकर मम्मी भी आधी चिकित्सक बन गर्इं थी। उनके अनुभव और उनसे मिली जानकारियों को वे अपने दैनिक जीवन में उपयोग में लाती और अपनी सखी-सहेलियों की मदद में आजमाती। मम्मी के साहस और उनके व्यक्तिगत अनुभव का ही नतीजा था कि उन्होंने एक जटिल डिलीवरी स्वयं करवाई और मां को बचाया। दुर्भाग्य से बच्चे को न बचा सकीं, लेकिन उन्होंने एक जिन्दगी को तो बचाया ये कोई छोटी बात नहीं थी। प्रशिक्षित दाई, आशा कार्यकर्ता और डॉक्टर के अभाव में हर रोज देश में कई महिलाएं डिलीवरी के समय दम तोड़ देती हैं। ऐसी घटनाएं होना हमारे लिए आम बात हो सकती है, लेकिन उस परिवार से पूछो जिस पर ये गुजरती है। डिलीवरी के समय जच्चा या बच्चा में अगर कोई भी गुजर जाए तो पूरे घर में मातम सा छा जाता है। गांवों में ऐसे चिकित्सकों की जरूरत है जो उनकी परिस्थितियों को समझकर इलाज कर सकें और लोगों को बेहतर व स्वस्थ जीवन का पाठ पढ़ा सकें। 
बचपन में गुजारे बचपन का असर था कि मैंने स्नातक (बीएससी) की पढ़ाई में बॉटनी यानि वनस्पति विज्ञान और जन्तु विज्ञान को विषय के रूप में चुना। पेड़-पौधे, जानवर, कीट-पतंगे सभी के साथ-साथ ही तो मैं बड़ी हुई थी। जो सम्मान मुझे गांव में रहकर मिला, उसे कभी नहीं भूल सकती हूं। घर में हर एक चीज का ढेर लगा रहता था, आम के मौसम में आम, जामुन के सीजन में जामुन; न जाने ऐसी कितनी चीजें जो मुझे आज भी याद आती हैं। ये सब पापा की वजह से हुआ। अगर वे गांव में नौकरी नहीं करते और अपनी चिकित्सीय सेवाएं नहीं देते तो शायद ये कभी संभव नहीं हो पाता। यही यादें हैं जो आज भी मुझे ग्रामीण होने का अहसास कराती हैं, और मैं गर्व से कह पाती हूं कि ‘हां, मैंने देखा है असली भारत।’


1 comments:

लोकेन्द्र सिंह said...

अधिक पैसे कमाने के फेर में आज के डॉक्टर भगवान से शैतान हो गये हैं...

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